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________________ समाधिनिसो २२१ भन्ते'' ति वदन्ति। केचि पन अपस्समाना विय तुम्ही होन्ति, केचि अञ्जन मुखं करोन्ति, केचि ‘“गच्छ, रे मुण्डका' ति आदीहि फरुसवाचाहि समुदाचरन्ति । एवं कपणमनुस्सेन विय गामे पिण्डाय चरित्वा निक्खमितब्बं ति । इच्चेतं गामप्पवेसनतो पट्ठाय याव निक्खमना उदकचिक्खल्लादिपटिक्कूलं आहारहेतु अक्कमितब्बं चेव दट्ठब्बं च अधिवासेतब्बं च होति - अहो वत, भो, पटिक्कूलो आहारो ति । एवं परियेसनतो पटिक्कूलता पच्चवेक्खितब्बा । (२) कथं परिभोगतो ? एवं परियिट्ठाहारेन पन बहिगामे फासुकट्ठाने सुखनिसिन्नेन याव तत्थ हत्थं न ओतारेति, ताव तथारूपं गरुट्ठानियं भिक्खुं वा लज्जिमनुस्सं वा दिस्वा निमन्तेतुं पि सक्का होति । भुञ्जिकामताय पनेत्थ हत्थे ओतरितमत्ते "गण्हथा" ति वदन्तेन लज्जितब्बं होति । हत्थं पन ओतारेत्वा भद्दन्तस्स पञ्चङ्गुलिअनुसारेन सेदो पग्घरमानो सुक्खथद्धभत्तं पि तेमेन्तो करोति । अथ तस्मि परिमद्दनमत्तेना पि सम्भिन्नसोभे आलोपं कत्वा मुखे ठपिते हेट्ठिमदन्ता उदुक्खलकिच्वं साधेन्ति, उपरिमा मुसलकिच्चं, जिव्हा हत्थकिच्वं । तं तत्थ सुवानदोणियं सुवानपिण्डमिव दन्तमुसलेहि कोट्टेत्वा जिव्हाय सम्परिवत्तियमानं जिव्हाग्गे तेनुपसन्नखेळो `मक्खेति, वेमज्झतो पट्ठाय बहलखेळो मक्क्खेति, दन्तकट्ठेन असम्पत्तट्ठाने दन्तगूथको मक्खेति । सो एवं विचुण्णितमक्खितो तं खणं येव अन्तरहितवण्णगन्धसङ्घारविसेसो सुवान कोई कल का (बासी) भात भी, बासी खाद्य भी, सड़ी दाल या सूप आदि भी दे देते हैं। न देने वालों में भी कोई कोई " आगे बढ़िये, भन्ते " - यों कहते हैं; कोई कोई अनदेखी करते हुए चुप रहते हैं । कोई कोई 'जा रे मुण्डे !" यों कठोर वचन भी कहते हैं। यों भिखारी के समान गाँव में भिक्षाटन करने निकलना पड़ता है। इस प्रकार, ग्राम में प्रवेश से लेकर निष्क्रमणपर्यन्त, आहार के लिये पानी - कीचड़ आदि गन्दगियों को लाँघना पड़ता है। ओह ! आहार कितना प्रतिकूल है। पर्येषण से प्रतिकूलता का प्रत्यवेक्षण करना चाहिये। (२) परिभोग से कैसे ? जिसे आहार मिल गया हो, वह ग्राम से बाहर किसी सुविधायुक्त स्थान पर सुखपूर्वक बैठता है। (भोजन में) हाथ लगाने से पहले ही यदि किसी आदरणीय भिक्षु को या आवश्यकता वाले किसी संकोची व्यक्ति को देखता है तो उसे (भोजनहेतु) निमन्त्रित कर सकता है । किन्तु यदि खाने की इच्छा से उसमें हाथ लगा चुका होता है तो " लीजिये" यों कहने में लज्जा आती है। हाथ डालकर मसलते हुए की पाँचों अँगुलियों से बहता हुआ पसीना सूखे - कड़े भात को भी तरल करता हुआ मुलायम बना देता है । तब यों मसलने वाले का (भोजन) भी शोभारहित (विकृत) हो जाता है। कौर बनाकर मुख में रखने पर नीचे के दाँत ओखली का काम करते हैं, ऊपर के मूसल का, जिह्वा हाथ का । वहाँ (मुख में) जब वह कुत्ते के भोजन - पात्र (द्रोणी) में कुत्ते के ( भोजन ) पिण्ड के समान, दाँतरूपी मुसल से कूटता है, जिह्वा से उलटता पलटता है, तब जिह्वा के अग्रभाग से (उत्पन्न ) पतला थूक (भोजन में) मिल जाता है, मध्यभाग से गाढ़ा थूक मिल जाता है, और जहाँ दातौन से साफ नहीं किया गया हो, वहाँ दाँतों का मैल मिल जाता है।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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