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________________ २१८ विसुद्धिमग्गो मनोसञ्चेतनाहारो अङ्गारकासूपमेन (सं० नि० २/५११), विज्ञाणाहारो सत्तिसतूपमेना (सं० नि० २/५१२) ति। ४. इमेसु पन चतूसु आहारेसु असितपीतखायितसायितप्पभेदो कबळीकारो आहारो व इमस्मि अत्थे आहारो ति अधिप्पेतो। तस्मि आहारे पटिक्कूलाकारग्गहणवसेन उप्पन्ना सञ्जा आहारे पटिक्कूलसा । ५. तं आहारे पटिक्कूलसनं भावेतुकांमैन कम्मट्ठानं उग्गहेत्वा उग्गहतो एकपदं पि अविरज्झन्तेन रहोगतेन पटिसल्लीनेन असितपीतखायितसायितप्पभेदे कबळीकाराहारे दसहाकारेहि पटिक्कूलता पच्चवेक्खितब्बा। सेय्यथीदं–१. गमनतो, २. परियेसनतो, ३. परिभोगतो, ४. आसयतो, ५. निधानतो, ६. अपरिपक्कतो, ७. परिपक्वतो, ८. फलतो, ९. निस्सन्दतो, १०. सम्मक्खनतो ति। .. ६. तत्थ गमनतो ति। एवं महानुभावे नाम सासने पब्बजितेन सकलरत्तिं बुद्धवचनसज्झायं वा समणधम्मं वा कत्वा कालस्सेव वुट्ठाय चेतियङ्गणबोधियङ्गवत्तं कत्वा पानीयं परिभोजनीयं उपट्टपेत्वा परिवेणं सम्मज्जित्वा सरीरं पटिजग्गित्वा आसनं आरुय्ह वीस-तिसवारे कम्मट्ठानं मनसिकरित्वा उट्ठाय पत्तचीवरं गहेत्वा निजनसम्बाधानि? पविवेकसुखानि छायूदककसम्पन्नानि सुचीनि सीतलानि रमणीयभूमिभागानि तपोवनानि पहाय अरियं विवेकरतिं अनपेक्खित्वा सुसानाभिमुखेन सिङ्गालेन विय आहारत्थाय गामाभिमुखेन गन्तब्बं ___ एवं गच्छता च मञ्चम्हा वा पीठम्हा वा ओतरणतो पट्ठाय पादरजघरगोलिकवच्चास्पर्शाहार को चर्मरहित गाय की उपमा द्वारा (सं० नि० २/५११), मनःसञ्चेतना आहार को अङ्गारे से भरे गड्डे की उपमा द्वारा (सं० नि० २/५१२) एवं विज्ञानाहार को सौ बर्छियों की उपमा द्वार समझाना चाहिये। ४. इन चार आहारों में, जो आहार खाद्य, पेय, चळ (चबाये जाने योग्य) एवं लेह्य (चाटे जाने योग्य) इन प्रभेदों वाला है, वह यहाँ कवलीकार आहार के अर्थ में अभिप्रेत है। उस आहार को प्रतिकूल के रूप में ग्रहण करने से उत्पन्न हुई जो संज्ञा है, वह 'आहार में प्रतिकूल संज्ञा' है। ५. उस आहार में प्रतिकूल संज्ञा की भावना करने की इच्छा वाले को (एकान्त में जाकर) कर्मस्थान का ग्रहण करना चाहिये एवं ग्रहण करने के बाद विना एक पद भी विस्मृत किये, एकान्त में जाकर खाद्य, पेय, चळ, लेह्य प्रभेदों वाले कवलीकार आहार की इन दस प्रकार की प्रतिकूलताओं का प्रत्यवेक्षण करना चाहिये। यथा-१. गमन, २. पर्येषण, ३. परिभोग, ४. आशय, ५. निधान, ६. अपरिपक्व, ७. परिपक्व, ८. फल, ९. निष्यन्द, १०. संम्रक्षण से। ६. गमन से कैसे?-ऐसे महान् शासन में प्रव्रजित (योगी) रात्रिपयन्त बुद्धवचन का पाठ या श्रमणधर्म का अभ्यास करने के बाद समय पर उठकर चैत्य के आँगन या बोधि (वृक्ष) के आँगन का (मार्जन आदि) कृत्य करके, जल एवं भोजन रखकर, आँगन को भी स्वच्छ कर एवं शरीर की आवश्यकताएँ पूरी कर, आसन पर बैठ बीस-तीस बार कर्मस्थान का मनस्कार करता है। तब उठकर पात्र-चीवर लेकर लोक-बाधा से रहित, विवेक-सुख वाले छाया एवं जल १. निजनसम्बाधानी ति। जनसम्बाधरहितानि ।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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