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________________ आरुप्पनिद्देसो १९५ भायतेव उत्तसतेव, नेव नं दक्खितुकामो होति। यथा च अनत्थकारिना वेरिपुरिसेन सद्धिं एकगामे वसमानो पुरिसो तेन वधबन्धगेहज्झापनादीहि उपद्रुतो अजं गामं वसनत्थाय गन्त्वा तत्रापि वेरिना समानरूपसद्दसमुदाचारं पुरिसं दिस्वा भायतेव उत्तसतेव, नेव नं दक्खितुकामो होति। ३. तत्रिदं ओपम्मसंसन्दनं-तेसं हि पुरिसानं अहिना वेरिना वा उपद्दतकालो विय भिक्खुनो आरम्मणवसेन करजरूपसमङ्गिकालो। तेसं वेगेन पलायन-अज्ञगामगमनानि विय भिक्खुनो रूपावचरचतुत्थज्झानवसेन करजरूपसमतिक्कमनकालो। तेसं पलातढाने च अञगामे च लेखाचित्ततालपण्णादीनि चेव वेरिसदिसं पुरिसं च दिस्वा भयसन्तासअदस्सनकामता विय भिक्खुनो कसिणरूपं पि तप्पटिभागमेव इदं ति सल्लक्खेत्वा तं पि समतिक्कमितुकामता। सूकराभिहतसुनख-पिसाचभीरुकादिका पि चेत्थ उपमा वेदितब्बा।। ४. एवं सो तस्मा चतुत्थज्झानस्स आरम्मणभूता कसिणरूपा निब्बिज पक्कमितुकामो पञ्चहाकारेहि चिण्णवसी हुत्वा पगुणरूपावचरचतुत्थज्झानतो वुट्ठाय तस्मि झाने-"इमं मया निब्बिण्णं रूपं आरम्मणं करोती" ति च, "आसनसोमनस्सपच्चत्थिकं" ति च, "सन्तविमोक्खतो ओळारिकं" ति च आदीनवं पस्सति। अङ्गोलरिकता पनेत्थ नत्थि। यथेव हेतं रूपं दुवङ्गिकं, एवं आरुप्पानि पी ति। उससे सम्बद्ध कोई वस्तु जैसे-) ताड़ के रेखांकित पत्ते, लता, रस्सी या धरती में विवर (छेद) को देखे। देखकर वह डरता ही है, त्रस्त ही होता है, उसे देखना भी नहीं चाहता। और जैसे किसी प्राणघातक शत्रु (जानी दुश्मन) के साथ एक गाँव में कोई व्यक्ति रहता हो और वह (शत्रु) उसे मारने बाँधने या घर जलाने आदि द्वारा उद्विग्न करे जिससे वह किसी दूसरे गाँव में रहने चला जाय। वहाँ भी शत्रु के समान रूप या शब्द को देखे। तब वह उससे डरता ही है, त्रस्त ही होता है, उसे देखना भी नहीं चाहता। । ३. यहाँ इस उपमा का प्रयोग इस प्रकार है-सर्प या शत्रु से उन पुरुषों के उद्विग्न होने के समय के समान भिक्षु का वह समय है, जब वह आलम्बन के रूप में कर्मज रूप को अपनाता है। उनके तेजी से भागकर दूसरे गाँव में जाने के समान भिक्षु का वह समय है जब वह रूपावचर चतुर्थ ध्यान के रूप में कर्मज रूप का अतिक्रमण करता है। जिस स्थान पर भाग कर पहुँचा गया है, वहाँ, या दूसरे गाँव में, रेखाङ्कित ताड़पत्र आदि को या वैरी के समान (रूप वाले) पुरुष को देखकर भयसन्त्रास होने या देखने की इच्छा न होने के समान, 'कसिण रूप भी उसका विपरीत ही है' यों निरीक्षण कर उससे भी पार जाने की भिक्षु की इच्छा है। प्रस्तुत प्रसङ्ग में सूकर द्वारा आक्रान्त कुत्ते की, एवं पिशाच से भयग्रस्त पुरुष आदि की उपमा भी समझनी चाहिये। ४. वैसे ही वह (योगी) उस चतुर्थ ध्यान के आलम्बनभूत कसिण रूप से विरक्त होकर उससे आगे जाने की इच्छा से पाँच प्रकार की वशिता का अभ्यास कर, अभ्यस्त रूपावचर चतुर्थ ध्यान से उठकर उस ध्यान में यों दोष देखता है-"जिस रूप से मैं विरक्त हूँ, उसी को यह १. सो ति। योगावचरो।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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