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________________ ब्रह्मविहारनिद्देसो १९१ यतनपरमाहं, भिक्खवे, मुदितं चेतोविमुत्तिं वदामि...आकिञ्चायतनपरमाहं, भिक्खवे, उपेक्खं चेतोविमुत्तिं वदामी' ('सं० नि० ४/१७६८) ति। ६९. कस्मा पनेता एवं वुत्ता ति? तस्स तस्स उपनिस्सयत्ता । मेत्ताविहारिस्स हि सत्ता अप्पटिकूला होन्ति। अथस्स अप्पटिक्कूलपरिचया अप्पटिक्कूलेसु परिसुद्धवण्णेसु नीलादीसु चित्तं उपसंहरतो अप्पकसिरेनेव तत् चित्तं पक्खन्दति । इति मेत्ता सुभविमोक्खस्स उपनिस्सयो होति, न ततो परं; तस्मा 'सुभपरमां' ति वुत्ता। ७०. करुणाविहारिस्स दण्डाभिघातादिरूपनिमित्तं सत्तदुक्खं समनुपस्सन्तस्स करुणाय पवत्तिसम्भवतो रूपे आदीनवो परिविदितो होति। अथस्स परिविदितरूपादीनवत्ता पथवीकसिणादीसु अञ्चतरं उग्घाटेत्वा रूपनिस्सरणे आकासे चित्तं उपसंहरतो अप्पकसिरेनेव तत्थ चित्तं पक्खन्दति। इति करुणा आकासानञ्चायतनस्स उपनिस्सयो होति, न ततो परं; तस्मा 'आकासानञ्चायतनपरमा' ति वुत्ता। ७१. मुदिताविहारिस्स पन तेन तेन पामोज्जकारणेन उप्पन्नपामोज्जसत्तानं विज्ञाणं समनुपस्सन्तस्स मुदिताय पवत्तिसम्भवतो विज्ञाणग्गहणपरिचितं चित्तं होति। अथस्स अनुक्कमाधिगतं आकासानञ्चायतनं अतिकम्म आकासनिमित्तगोचरे विज्ञाणे चित्तं उपसंहरतो अप्पकसिरेनेव तत्थ चित्तं पक्खदन्ती ति मुदिता विज्ञाणञ्चायतनस्स उपनिस्सयो होति, न ततो परं; तस्मा 'विज्ञाणञ्चायतनपरमा' ति वुत्ता। विज्ञानानन्त्यायतन को मुदिता-चित्तविमुक्ति का चरम कहता हूँ... भिक्षुओ! मैं आकिञ्चन्यायतन को उपेक्षाचित्तविमुक्ति का चरम कहता हूँ।" (सं० नि० ४/१७६८)। ६९. इन्हें ऐसा क्यों कहा गया है? अपने अपने मूलाधार (उपनिश्रय) के कारण। यथामैत्रीविहारी के प्रति सत्त्व अप्रतिकूल रहते हैं। क्योंकि यह (भिक्षु) 'अप्रतिकूल' से परिचित होता है, अतः अप्रतिकूल, परिशुद्ध नीलादि वर्गों में चित्त को लगाते समय शीघ्र ही उनमें चित्त का प्रवेश हो जाता है। इस प्रकार मैत्री 'शुभ-विमोक्ष' का ही मूलाधार होती है, उससे आगे की नहीं। अत: उसे 'शुभ आधार' (शुभपरम) कहा जाता है। ७०. करुणाविहारी में, क्योंकि रूपनिमित्त (रूप है कारण जिसका ऐसे) दण्डाघात आदि के रूप में सत्त्वों का दुःख को देखकर करुणा उपजती है, अत: वह रूप के दोष को अच्छी तरह जानता है। क्योंकि उसे रूप का दोष भलीभाँति विदित है, अत: पृथ्वीकसिण आदि में से जिस किसी (ध्यानालम्बन) को हटाकर, जब रूपबाह्य आकाश में चित्त को लगाता है, तब शीघ्र ही उसमें चित्त का प्रवेश होता है। यों करुणा, क्योंकि आकाशानन्त्यायतन का आधार होती है, अगले की नहीं अतः, उसे 'आकाशानन्त्यायतन का आधार कहा गया है। ७१. प्रमोद के जिस किसी कारण से सत्त्वों में उत्पन्न प्रमोदरूप विज्ञान को भलीभाँति देखने से क्योंकि मुदिताविहारी में मुदिता की उत्पत्ति होती है, अत: उसका चित्त विज्ञान के ग्रहण से परिचित होता है। जब वह क्रमशः अधिगत आकाशानन्त्यायतन का अतिक्रमण कर, आकाशनिमित्त को गोचर (क्षेत्र) बनाने वाले विज्ञान में चित्त को लगाता है, तब चित्त अनायास उसमें १. पक्खन्दती ति। अनुपविसति, विमोक्खभावेन अप्पेति।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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