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________________ १७६ विसुद्धिमग्गो वेक्खित्वा करुणाभावना, आरभितब्बा। तं च पन आरभन्तेन पठमं पियपुग्गलादीसु न आरभितब्बा। पियो हि पियट्ठाने येव तिट्ठति। अतिप्पियसहायको अतिप्पियसहायकट्ठानेयेव, मज्झत्तो मज्झत्तट्ठाने येव; अप्पियो अप्पियट्ठाने येव, वेरी वेरिट्ठाने येव तिट्ठति । लिङ्गविसभागकालङ्कता अखेत्तमेव। ४२. कथं च भिक्खु करुणासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति? "सेय्यथापि नाम एकं पुग्गलं दुग्गतं दुरुपेतं दिस्वा करुणायेय्य, एवमेव सब्बसत्ते करुणाय फरती" (अभि० २/३२८) ति विभङ्गे वुत्तत्ता सब्बपठमं ताव किञ्चिदेव करुणायितब्बरूपं परमकिच्छप्पत्तं दुग्गतं दुरुपेतं कपणपुरिसं छन्नाहारं कपालं पुरतो ठपेत्वा अनाथसालाय निसिनं हत्थपादेहि पग्घरन्तकिमिगणं अट्टस्सरं करोन्तं दिस्वा-"किच्छं वतायं सत्तो आपन्नो, अप्पेव नाम इमम्हा दुक्खा मुच्चेय्या" ति करुणा पवत्तेतब्बा। तं अलभन्तेन सुखितो पि पापकारी पुग्गलो वज्झेन उपमेत्वा करुणायितब्बो। . ४३. कथं ? सेय्यथापि सह भण्डेन गहितं चोरं "वधेथ नं" ति रञो आणाय राजपुरिसा वन्धित्वा चतुक्के चतुक्के पहारसतानि देन्ता आघातनं नेन्ति । तस्स मनुस्सा खादनीयं पि भोजनीयं पि मालागन्धविलेपनतम्बूलानि पि देन्ति। किञ्चापि सो तानि खादन्तो चेव परिभुञ्जन्तो च सुखितो भोगसमप्पितो विय गच्छति, अथ खो तं नेव कोचिं "सुखितो अयं महाभोगो" ति मति। अञदत्थु "अयं वराको इदानि मरिस्सति, यं यदेव हि अयं पदं एवं करुणा के गुण का प्रत्यवेक्षण करते हुए करुणा भावना का आरम्भ करना चाहिये। किन्तु उसे भी आरम्भ करते समय सर्वप्रथम प्रिय व्यक्तियों आदि के प्रति नहीं प्रारम्भ करना चाहिये; क्योंकि प्रिय तो प्रिय ही होता है, अतिप्रिय मित्र अतिप्रियमित्र ही, मध्यस्थ मध्यस्थ ही, अप्रिय अप्रिय ही और वैरी वैरी ही होता है। (तात्पर्य यह कि ब्रह्मविहार में परिवर्तन से उस प्रिय आदि के प्रियत्व आदि में तो परिवर्तन होता नहीं।) (साथ ही) लिङ्ग का विपरीत होना, मृत होना तो अक्षेत्र (आलम्बन बनाये जाने के अयोग्य) ही है। ४२. "कैसे भिक्षु करुणायुक्त चित्त से एक दिशा को परिव्याप्त कर साधना करता है? जैसे किसी एक दुर्गतिग्रस्त, दुरवस्था प्राप्त व्यक्ति को देखकर करुणा करे, वैसे ही सब सत्त्वों को करुणा का आलम्बन बनाता है" (अभि० २/३२८)-यों विभङ्ग में उक्त होने से सर्वप्रथम दयनीय व्यक्ति को जो अभागा, दुर्गतिग्रस्त, दीनहीन हो, जिसके हाथ पाँव कटे हों, जो अनाथालय में अपने सामने (भीख माँगने का) कटोरा लेकर बैठा हो, जिसके हाथ पैरों में से कीड़े निकल रहे हों, जो (पीड़ा के कारण) कराह रहा हो; देखकर-"यह व्यक्ति अभागा है, कितना अच्छा हो यदि यह इस दुःख से छूट जाय"-यों करुणा उत्पन्न करनी चाहिये। उस (वैसे आलम्बन) को न पाने पर किसी सुखी किन्तु पापी व्यक्ति की वध्य से तुलना करते हुए करुणा करनी चाहिये। ४३. कैसे? जैसे कि रंगे हाथ पकड़े गये चोर को "इसका वध कर दो"-ऐसी राजाज्ञा के अनुसार राजकर्मचारी बाँधकर हर चौराहे पर सौ सौ कोड़े लगाते हुए वधस्थल पर ले जाते हैं। उस मनुष्य को खाद्य-भोज्य भी, माला-गन्ध-विलेपन और ताम्बूल (पान) भी देते हैं। यद्यपि वह उन्हें खाते हुए, परिभोग करते हुए सुखी, भोगसम्पन्न के समान जाता है, फिर भी 'यह सुखी
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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