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________________ ब्रह्मविहारनिद्देसो १६७ सो हि पठमज्झानादीनं अतरवसेन "मेत्तासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति। तथा दुतियं, तथा ततियं, तथा चतुत्थं। इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं मेत्तासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्यमाणेन अवेरेन अब्यापज्जेन फरित्वा विहरति" (अभि० २/३२७)। पठमज्झानादिवसेन अप्पनापत्तचित्तस्सेव हि अयं विकुब्बना सम्पज्जति। ___३४. एत्थ च मेत्तासहगतेना ति। मेत्ताय समन्नागतेन । चेतसा ति। चित्तेन । एकं दिसं ति। एतं एकिस्सा दिसाय पठमपरिग्गहितं सत्तं उपादाय एकदिसा परियापन्नसत्तफरणवसेन वुत्तं । फरित्वा ति। फुसित्वा, आरम्मणं कत्वा। विहरती ति। ब्रह्मविहाराधिट्ठितं इरियापथविहारं पवत्तेति। तथा दुतियं ति। यथा पुरत्थिमादीसु दिसासु यं किञ्चि एकं दिसं फरित्वा विहरति, तथैव तदनन्तरं दुतियं ततियं चतुत्थं चा ति अत्थो। इति उद्धं ति। एतेनेव नयेन उपरिमं दिसं ति वुत्तं होति। अधो तिरियं ति। अधो दिसं पि तिरियं दिसं पि एवमेव । तत्थ च अधो ति हेट्ठा । तिरियं ति । तिरियं ति । अनुदिसासु। एवं सब्बदिसासु अस्समण्डले अस्समिव मेत्तासहगतं चित्तं सारेति पि, पच्चासारेति पी ति। एत्तावता एकमेकं दिसं परिग्गहेत्वा ओधिसो मेत्ताफरणं दस्सितं। - सब्बधी ति आदि पन अनोधिसो दस्सनत्थं वुत्तं। तत्थ सब्बधी ति। सब्बत्थ। से युक्त, त्रिविध कल्याणकर एवं दस लक्षणों से युक्त होता है। उसे प्राप्त करने के पश्चात् उसी निमित्त का अभ्यास, भावना, वृद्धि करते हुए क्रमशः चतुष्क नय के अनुसार द्वितीय तृतीय ध्यानों को और पञ्चक नय के अनुसार द्वितीय तृतीय चतुर्थ ध्यानों को प्राप्त करता है। वह प्रथम ध्यान आदि में से किसी एक में "मैत्री-चित्त से एक दिशा को व्याप्त कर (मैत्री भावना के आलम्बन के रूप में किसी एक दिशा का ग्रहण कर) साधना करता है। वैसे ही द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ को। यों ऊपर नीचे, चतुर्दिक्, सर्वत्र समान रूप से समस्त लोक को विपुल, महद्गत, अप्रमाण, वैररहित, व्यापादरहित मैत्रीयुक्त चित्त से व्याप्त कर साधना करता है" (अभि० २/३२७)। प्रथम ध्यान आदि के द्वारा अर्पणा-प्राप्त चित्त को यह बहुआयामी परिवर्तनशील विकुब्बना प्राप्त होती है। ३४. यहाँ मेत्तासहगतेन-मैत्रीयुक्त के द्वारा । चेतसा-चित्तद्वारा । एकं दिसं-किसी एक दिशा को जिसे सत्त्व ने पहले ग्रहण किया हो एवं उसी एक दिशा के सत्त्वों के प्रति (मैत्री का) विस्तार करना हो। फरित्वा-स्पर्शकर, आलम्बन बनाकर। विहरति-ब्रह्मविहार के रूप में अधिष्ठान किये हुए ईर्यापथविहार में प्रवृत्त होता है। तथा दुतियं-अर्थात् जैसे पूर्व आदि दिशाओं में से जिस किसी दिशा को (मैत्री का) आलम्बन बनाकर साधना करता है, वैसे ही तदनन्तर द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ को भी। इति उद्धं-अर्थात् इसी प्रकार ऊपरी दिशा को।अधो, तिरियंनिचली दिशा एवं चारों दिशाओं को भी वैसे ही। एवं इनमें अधो-निचली। तिरियं-अनुदिशाओं में। यों सभी दिशाओं में, अश्वों के घेरे में अश्व के समान, मैत्रीयुक्तचित्त को अग्रसारित भी करता है, पीछे लौटता भी है। यहाँ तक एक एक दिशा का ग्रहण कर, पृथक् पृथक् मैत्री की व्यापकता प्रदर्शित की गयी है। 2-13
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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