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ब्रह्मविहारनिद्देसो
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रहपरिक्खारो, अत्तनो सन्तकमेव दातब्बं । तस्सेवं करोतो एकन्तेनेव तस्मि पुग्गले आघातो वूपसम्मति । इतरस्स च अतीतजातितो पट्ठाय अनुबन्धो पि कोधो तं खणं येव वूपसम्मति । चित्तलपब्बतविहारे तिक्खत्तुं वुट्ठापितसेनासनेन पिण्डपातिकत्थेरेन अयं भन्ते, अट्ठकहापणग्घनको पत्तो मम मातरा उपासिकाय दिन्नो, धम्मियलाभो, महाउपासिकाय पुञ्ञलाभं करोथा" ति वत्वा दित्रं पत्तं लद्धमहाथेरस्स विय। एवं महानुभावं एतं दानं नाम । वुत्तं पिचेतं
"अदन्तदमनं दानं दानं सब्बत्थसाधकं । दानेन पियवाचाय उन्नमन्ति ' नमन्ति २ चा " ति ॥
३२. तस्सेवं वेरिपुग्गले वूपसन्तपटिघस्स यथा पियातिप्पियसहायकमज्झत्तेसु, एवं तस्मि पि मेत्तावसेन चित्तं पवत्तति । अथानेन पुनप्पुनं मेत्तायन्तेन - अत्तनि, पियपुग्गले, मज्झत्ते, वेरिपुग्गले ति चतूसु जनेसु समचित्ततं सीमासम्भेदो ३ कातब्बो ।
तस्सिदं लक्खणं–सचे इमस्मि पुग्गले पियमज्झत्तवेरीहि सद्धिं अत्तचतुत्थे एकस्मि पदेसे निसिन्ने चोरा आगन्त्वा " भन्ते, एकं भिक्खुं अम्हाकं देथा" ति वत्वा " किं कारणा" ति वुत्ते “तं मारेत्वा गललोहितं गहेत्वा बलिकरणत्थाया" ति वदेय्युं तत्र चेसो भिक्खु
आजीविकाविहीन हो, आवश्यक उपभोग्य वस्तुओं से रहित हो तो उसे अपने पास से ही देना चाहिये। ऐसा करने से (किसी की तो) उस व्यक्ति को हानि पहुँचाने की इच्छा पूरी तरह से शान्त हो जाती है। और किसी का पूर्वजन्मों से पीछे लगा हुआ क्रोध भी तत्क्षण ही शान्त हो जाता है। जैसे कि चित्तल पर्वत विहार में तीन बार शयनासन से विस्थापित किये जा चुके पिण्डपातिक स्थविर द्वारा - " भन्ते ! यह आठ कार्षापण मूल्य का पात्र मेरी माता उपासिका ने दिया है। यह धर्म के अनुकूल प्राप्त हुआ है। (इसे ग्रहण कर ) महा उपासिका को पुण्य लाभ करायें" - यों कहकर दान किये गये पात्र को प्राप्त करने वाले महास्थविर का ( क्रोध शान्त हो गया)। एवं यह कहा भी गया है
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'दान अदान्त (जिसका दमन नहीं हुआ है) का भी दमन करने वाला है, दान सर्वसाधक है। मधुर वचनों से एवं दान देने से (देने वाले) ऊँचे उठते हैं एवं (लेने वाले) नीचे झुकते हैं।" सीमा अतिक्रमण : ३२. जब वैरी व्यक्ति के प्रति उसका द्वेष शान्त हो जाय, तब जैसे प्रिय या अतिप्रिय मित्र या मध्यस्थ में, वैसे ही उस वैरी में भी मैत्री - चित्त प्रवृत्त हो सकता है। तब उसे स्वयं में, प्रिय व्यक्ति, मध्यस्थ और वैरी व्यक्ति में-यों चारों जनों के प्रति समानभाव रखते हुए, पुनः पुनः मैत्री का अभ्यास करते हुए सीमा का अतिक्रमण (=सम्भेद-समचित्तता) करना चाहिये ।
उसका यह लक्षण है— मान लीजिये कि यह व्यक्ति – प्रिय, मध्यस्थ और वैरी के साथ स्वयं वह चौथा - एक स्थान पर बैठा हो और चोर आकर कहें- " भन्ते, एक भिक्षु को मुझे दे दीजिए।" "किस लिये ?" ऐसा पूछे जाने पर कहे - " जिससे कि उसे मारकर उसके गले का
२. पटिग्गाहका नमन्ति ।
१. दायका उन्नमन्ति ।
३. सीमासम्भेदो ति । सा एव समचित्तता ।