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________________ १४२ विसुद्धिमग्गो वेदितब्बा। वुत्तं हेतं भगवता-"एवं भाविताय खो, राहुल, आनापानस्सतिया एवं बहुलीकताय ये पि च ते चरिमका अस्सासपस्सासा, ते पि विदिता व निरुज्झन्ति, नो अविदिता" (म० नि०२/५८७) ति। ७४. तत्थ निरोधवसेन तयो चरिमका-भवचरिमका, झानचरिमका, चुतिचरिमका ति। भवेसु हि कामभवे अस्सासपस्सासा पवत्तन्ति, रूपारूपभवेसु नप्पवत्तन्ति, तस्मा ते भवचरिमका । झानेसु पुरिमे झानत्तये पवत्तन्ति, चदुत्थे नप्पवत्तन्ति, तस्मा ते झानचरिमका। ये पन चुतिचित्तस्स पुरतो सोळसमेन चित्तेन सद्धिं उप्पज्जित्वा चुतिचित्तेन सह निरुज्झन्ति, इमे चुतिचरिमका नाम। इमे इध "चरिमका" ति अधिप्पेता। . . ___७५. इमं किर कम्मट्ठानं अनुयुत्तस्स भिक्खुनो आनापानारम्मणस्स सुटु परिग्गहितत्ता चुतिचित्तस्स पुरतो सोळसमस्स चित्तस्स उप्पादक्खणे उप्पादं आवजयतो उप्पादो पि नेसं पाकटो होति। ठितिं आवजयतो ठिति पि नेसं पाकटा होति। भङ्गं आवजयतो च भङ्गो नेसं पाकटो होति। इतो अजं कम्मट्ठानं भावेत्वा अरहत्तं पत्तस्स भिक्खुनो हि आयुअन्तरं परिच्छिन्नं वा होति अपरिच्छिन्नं वा। इमं पन सोळसवत्थुकं आनापानस्सतिं भावेत्वा अरहत्तं पत्तस्स ने कहा है-"भिक्षुओ! आनापानस्मृति बढ़ाने पर, भावना करने पर चार स्मृतिप्रस्थानों को परिपूर्ण करती है, चार स्मृतिप्रस्थान भावना करने, बढ़ाने पर सात सम्बोध्यङ्गों को परिपूर्ण करते हैं, सात सम्बोध्यङ्ग भावना करने बढ़ाने पर विद्या विमुक्ति को परिपूर्ण करते हैं। (म०नि० ३/११६७) ७३. इसके अतिरिक्त, क्योंकि इसके कारण अन्तिम आश्वास-प्रश्वास भी विदित (चेतनावस्था में) होते हैं, इसलिये भी इसका माहात्म्य जानना चाहिये। क्योंकि भगवान् ने कहा है-"राहुल! आनापानस्मृति की यों भावना करने, बढ़ाने पर अन्तिम आश्वास प्रश्वास भी विदित रूप में ही निरुद्ध होते हैं, अविदित रूप में नहीं।" (म० नि० २/५८७) ७४. निरोध के अनुसार तीन अन्तिम (चरम) हैं-भव-अन्तिम, ध्यान-अन्तिम, च्युतिअन्तिम। भवों में, कामभव में आश्वास-प्रश्वास होते हैं, रूप और अरूप भवों में नहीं होते, इसलिये ये भव (में) अन्तिम हैं। ध्यानों में, पूर्व के तीन ध्यानों में होते हैं, चतुर्थ में नहीं होते, इसलिये वे ध्यान-अन्तिम हैं। जो च्युत होने वाले चित्त के पूर्व सोलह चित्तों के साथ उत्पन्न होकर, च्युत होने वाले चित्त के साथ निरुद्ध होते हैं, वे च्युति-अन्तिम हैं। ये ही यहाँ "अन्तिम के रूप में" अभिप्रेत हैं। ७५. इस कर्मस्थान में लगे हुए भिक्षु का आनापान-आलम्बन क्योंकि भलीभाँति गृहीत होता है, अत: च्युति-चित्त के पूर्व सोलह चित्तों के उत्पत्ति क्षण में उत्पत्ति का आवर्जन करते समय उनकी उत्पत्ति का भी स्पष्ट भान होता है, स्थिति का आवर्जन करते समय स्थिति का भी एवं भङ्ग का आवर्जन करते समय उनके भङ्ग का भी स्पष्ट अनुभव होता है। इससे भिन्न किसी कर्मस्थान की भावना कर अर्हत्त्व प्राप्त करने वाले भिक्षु को अपनी १. स्मृतिप्रस्थान-कायानुपश्यना, वेदनानुपश्यना, चित्तानुपश्यना, धर्मानुपश्यना। २. सम्बोध्यङ्ग-स्मृतिसम्बोध्यङ्ग, धर्मविचय..., वीर्य... प्रीति... प्रश्रब्धि..., समाधि..., उपेक्षासम्बोध्यङ्ग।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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