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________________ १३२ विसुद्धिमग्गो अयं पन अट्ठकथासु विनिच्छयो-इदं हि कस्सचि तारकरूपं विय मणिगुळिका विय मुत्तागुळिका विय च, कस्सचि खरसम्फस्सं हुत्वा कप्पसट्ठि विय दारुसारसूचि विय च, कस्सचि दीघपामङ्गसुत्तं विय कुसुमदामं विय धूमसिखा विय च, कस्सचि वित्थतं मक्कटसुत्तं विय वलाहकपटलं विय पदुमपुष्पं विय रथचक्कं विय चन्दमण्डलं विय सुरियमण्डलं विय च उपट्टाति। ___तं च पनेतं-यथा सम्बहुलेसु भिक्खूसु सुत्तन्तं-सज्झायित्वा निसिन्नेसु एकेन भिक्खुना "तुम्हाकं कीदिसं हुत्वा इदं सुत्तं उपट्टाती?" ति वुत्ते एको "महं महती पब्बतेय्या नदी विय हुत्वा उपट्ठाती" ति आह। अपरो "महं एका वनराजि विय"। अञ्जो "मय्हं एको सातच्छायो साखासम्पन्नो फलभारभरितरुक्खो विया" ति। तेसं हि तं एकमेव सुत्तं सञानानताय नानतो उपट्ठाति । एवं एकमेव कम्मट्ठानं सज्ञानानताय नानतो उपट्ठाति । सञजं हि एतं, सानिदानं, सञापभव। तस्मा सञानानताय नानतो उपट्ठाती ति वेदितब्बं। एत्थ च अञ्जमेव अस्सासारम्मणं चित्तं, असं पस्सासारम्मणं, अचं निमित्तारम्मणं। यस्स हि इमे तयो धम्मा नत्थि, तस्स कम्मट्ठानं नेव अप्पनं, न उपचारं पापुणाति । यस्स पनिमे तयो धम्मा अत्थि, तस्सेव कम्मट्टानं उपचारं च अप्पनं च पापुणाति। वुत्तं हेत्तं __ "निमित्तं अस्सासपस्सासा अनारम्मणमेकचित्तस्स। . .. किन्तु अट्ठकथाओं में स्पष्टीकरण इस प्रकार है-किसी किसी को यह तारे के समान, मणियों या मोतियों की लड़ी के समान, किसी को कठोर स्पर्श के रूप में कपास के बीज़ या लकड़ी को छीलकर बनायी गयी खूटी के समान, किसी को सिकड़ी (शृंखला) या फूल की माला या धूमशिखा के समान, किसी को फैले हुए मकड़ी के जाले या बादलों की पर्त या कमल के फूल या रथ के पहिये या चन्द्रमण्डल या सूर्य के समान जान पड़ता है। यह एक ही कर्मस्थान संज्ञा के नानात्व के आधार पर नानारूपों में जान पड़ता है। जैसे कि एक साथ एकत्र हुए और सूत्रान्त का पाठ करने के बाद बैठे हुए भिक्षुओं में से एक भिक्षु ने जब पूछा-"तुम्हें यह सूत्र कैसा जान पड़ता है?", एक ने कहा-"मुझे विशाल पहाड़ी नदी सा जान पड़ता है"। दूसरे ने (कहा)-"मुझे वन में वृक्ष पंक्ति के समान।" अन्य ने कहा"मुझे शीतल छाया वाले, शाखाओं वाले, फलों से भरे पूरे वृक्ष के समान।" एक ही सूत्र, संज्ञा के नानात्व के आधार पर, उन्हें नानारूपों में जान पड़ता है। क्योंकि यह (कर्मस्थान) संज्ञा से उत्पन्न है, इसका निदान (स्रोत) संज्ञा से प्रादुर्भूत है इसलिये संज्ञा के नाना होने से नानारूपों में जान पड़ता है-ऐसा जानना चाहिये। इस प्रसङ्ग में, आश्वास को आलम्बन बनाने वाला चित्त अन्य ही है, तथा प्रश्वास का आलम्बन बनाने वाला कोई अन्य; तथा निमित्त को आलम्बन बनाने वाला और ही है। जिसे ये तीनों धर्म स्पष्ट नहीं हैं, उसका कर्मस्थान न तो अर्पणा और न उपचार को ही प्राप्त करता है। जिसे ये तीनों धर्म स्पष्ट हैं उसी का कर्मस्थान उपचार और अर्पणा को प्राप्त करता है। क्योंकि कहा भी है "निमित्तं..उपलब्भती" ति॥ (खु० नि० ५/१९९)
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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