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विसुद्धिमग्गो
चित्तस्स एकग्गतं अविक्खेपं पजानतो सति उपट्टिता होति, ताय सतिया तेन आणेन सतोकारी होती" (खु० नि० ५ / २०४ ) ति ।
तत्थ दीघं वा अप्रसन्तोति । दीघं वा अस्सासं पवत्तयन्तो । " अस्सासो ति बहि निक्खमनवातो, पस्सासो ति अन्तो पविसनवातो" ति विनयट्ठकथायं वुत्तं । सुत्तन्तट्ठकथासु पन उप्पटिपाटिया आगतं। तत्थ सब्बेसं पि गब्भसेय्यकानं मातुकुच्छितो निक्खमनकाले पठमं अब्भन्तरवातो बहि निक्खमति, पच्छा बाहिरवातो सुखुमरजं गहेत्वा अब्भन्तरं पविसन्तो तालु आहच्च निब्बायति । एवं ताव अस्सासपस्सासा वेदितब्बा ।
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या पन ते दीघरस्सता, सा अद्धानवसेन वेदितब्बा । यथा हि ओकासद्धानं फरित्वा ठितं उदकं वा वालिका वा " दीघं उदकं दीघा वालिका, रस्सं उदकं रस्सा वालिका " ति वुच्चति, एवं चुण्णविचुण्णा पि अस्सासपस्सासा हत्थिसरीरे च अहिसरीरे च तेसं अत्तभावसङ्घातं दीघं अद्धानं सणिकं पूरेत्वा सणिकमेव निक्खमन्ति, तस्मा 'दीघा' ति वुच्चन्ति । सुनखससादीनं अत्तभावसङ्घातं रस्सं अद्धानं सीघं पूरेत्वा सीघमेव निक्खमंन्ति, तस्मा 'रस्सा' ति वुच्चन्ति ।
मनुस्सेसु पन केचि हत्थि - अहिआदयो विय कालद्धानवसेन दीघं अस्ससन्ति च
स्मृति के साथ करने वाला होता है। लम्बा साँस छोड़ने से... पूर्ववत्... साँस लेने से प्रतिनिःसर्ग की अनुपश्यना करने वाला होता है। साँस छोड़ने से प्रतिनिःसर्ग की अनुपश्यना करने वाला होता है। चित्त की एकाग्रता, अविक्षेप को जानते हुए, स्मृति उपस्थित होती है । उस स्मृति, उस ज्ञान के कारण, स्मृति के साथ करने वाला होता है।" (खु० नि० ५ / २०४) ।
दीर्घ वा अस्ससन्तो - अथवा लम्बी सांस लेते हुए। विनय (पिटक) की अट्ठकथा में कहा गया है - बाहर निकलने वाली वायु आश्वास है, भीतर प्रवेश करने वाली वायु प्रश्वास है । किन्तु सुत्तन्त की अट्ठकथाओं में इसके विपरीत आया हुआ है। वहाँ - 'सभी गर्भस्थ शिशु जब माता के गर्भ से निकलते हैं, उस समय पहले तो भीतर की वायु बाहर निकलती है, फिर बाहर से वायु सूक्ष्म रज (धूल) को लेकर भीतर प्रवेश करते हुए, तालु से लगकर शान्त हो जाती है— यों आश्वास-प्रश्वास को जानना चाहिये ।
जो उनकी दीर्घता एवं हस्वता है, उसे कालिक दूरी (अद्धान) के आधार पर समझना चाहिये। जैसे कि रिक्त स्थान में फैला हुआ जल या बालू (स्थान के अनुसार) दीर्घ जल या दीर्घ बालू, ह्रस्व जल या ह्रस्व बालू-यों कहा जाता है, वैसे ही सूक्ष्म से सूक्ष्म भी आश्वासप्रश्वास हाथी के शरीर में और साँप के शरीर में आत्मभावसंज्ञक लम्बी दूरी (अर्थात् लम्बे शरीर ) . में धीरे धीरे भरते हुए धीरे धीरे ही निकलते हैं, इसलिये दीर्घ ( बड़े, लम्बे ) कहे जाते हैं। कुत्तेखरगोश आदि की आत्मभावसंज्ञक ह्रस्व दूरी को शीघ्रता से भरकर शीघ्रता से ही निकलते हैं, इसलिये ह्रस्व (छोटे) कहे जाते हैं।
(तात्पर्य यह है कि शरीर जितना ही दीर्घायत होगा, श्वास-प्रश्वास को भरने और निकलने में उतना ही समय लगेगा ।)
किन्तु मनुष्यों में कोई कोई तो हाथी साँप आदि के समान सामयिक दृष्टि से लम्बा साँ