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________________ ११० विसुद्धिमग्गो अरज्जे पविसित्वान गण्हाति फलमुत्तमं" ति॥ (मि० प० ४१५) तेनस्स परक्कमज़बयोग्गभूमिं अरञसेनासनं दस्सेन्तो भगवा "अरगतो वा" आदिमाह। ५९. तत्थ अरञ्जगतो ति। "अरलं ति निक्खमित्वा बहि इन्दखीला सब्बमेतं अरञ्ज" (अभि० २/३०२) ति च "आरञकं नाम सेनासनं पञ्चधनुसतिकं पच्छिमं" (वि० १/३७१) ति एवं वुत्तलक्खणेसु अरजेसु यं किञ्चि पविवेकसुखं अरजंगतो। रुक्खमूलगतो ति। रुक्खसमीपं गतो। सुझागारगतो ति। सुखं विवित्तोकासं गतो। एत्थ च ठपेत्वा अरबं च रुक्खमूलं च अवसेससत्तविधसेनासनगतो पि सुझागारगतो ति वत्तुं वट्टति। ___ एवमस्स उत्तुत्तयानुकूलं' धातुचरियानुकूलं च आनापानस्सतिभावनानुरूपं सेनासनं उपदिसित्वा अलीनानुद्धच्चपक्खिकं सन्तं इरियापथं उपदिसन्तो निसीदती ति आह। अथस्स निसजाय दळहभावं अस्सासपस्सासानं पवत्तनसुखतं आरम्मणपरिग्गहूपायं च दस्सेन्तोपल्लङ्घ आभुजित्वा ति आदिमाह। तत्थ पल्लङ्घ ति। समन्ततो ऊरुबद्धासनं। आभुजित्वा ति। बन्धित्वा । उM कायं पणिधाया ति। उपरिमसरीरं उजुकं ठपेत्वा । अट्ठारस पिट्टिकण्टके कोटिया "जैसे चीता छिपकर पशुओं को पकड़ता है, वैसे ही योग में लगा, विपश्यना करने वाला यह बुद्धपुत्र अरण्य में प्रवेश कर उत्तम फलं को ग्रहण करता है"॥ (मि० प० ४१५) अतः इस (भिक्षु) के पराक्रम (वीर्य उत्साह) में तीव्रता लाने योग्य भूमि-अरण्यशयनासन को प्रदर्शित करते हुए भगवान् ने 'अरण्यगतो वा' आदि कहा है। ५९. अरजगतो-"अरण्य–इन्द्रकील के बाहर यह सब (भूमि) अरण्य है" (अभि० २/३०२) एवं "आरण्यक शयनासन कम से कम पाँच सौ धनुष वाला होता है" (वि० १/३७१)इस प्रकार बतलाये गये किसी भी एकान्त, सुखद अरण्य में गया हुआ। रुक्खमूलगतो-वृक्ष के समीप गया हुआ कहा जा सकता है। यों इसके लिये तीनों ऋतुओं के अनुकूल धातु या चर्या के अनुकूल एवं आनापानस्मृति की भावना के अनुरूप शयनासन का उपदेश देकर, शिथिलता एवं औद्धत्य से रहित, शान्त ई-पथ का उपदेश देते हुए 'निसीदति'-ऐसा कहा गया है। पुनः इसके बैठने के दृढ़ भाव, श्वास-प्रश्वास के प्रवर्तन में सरलता होने तथा आलम्बनपरिग्रह के उपाय को प्रदर्शित करते हुए पल्लईं आभुजित्वा (पालथी मारकर) आदि कहा गया है। पल्लङ्क-जावों को पूरी तरह से बाँध कर बैठना। १. गिम्हकाले च अरबं अनुकूलं, हेमन्ते रुक्खमूलं, वस्सकाले सुजागारं । सेम्हधातुकस्स सेम्हपकतिकस्स अरलं, पित्तधातुकस्स रुक्खमूलं, वातधातुकस्स सुज्ञागारं अनुकूलं। मोहचरितस्स अरञ्ज, दोसचरितस्स रुक्खमूलं, रागचरितस्स सुझागारं अनुकूलं। २. ग्रीष्म ऋतु में अरण्य, हेमन्त में वृक्षमूल, वर्षाकाल में शून्यागार अनुकूल है। ३. कफप्रकृति (धातु) के लिये अरण्य, पित्तप्रकृति के लिये वृक्षमूल, वायुप्रकृति के लिये शून्यागार अनुकूल ४. मोहचरित के लिये अरण्य, द्वेषचरित के लिये वृक्षमूल, रागचरित के लिये शून्यागार अनुकूल है।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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