SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९३ अनुस्सतिकम्मट्ठाननिद्देसो उदरं नाम उभतो निप्पीळ्यिमानस्स अल्लसाटकस्स मज्झे सञ्जातफोटकसदिसं अन्तपटलं, बहि मटुं, अन्तो मंसकसम्बुपलिवेठनकिलिट्ठपावारकपुप्फकसदिसं, कुथितपनसतचस्स अब्भन्तरसदिसं ति पि वत्तुं वट्टति। यत्थ तक्कोटका गण्डुप्पादका तालहीरका सूचिमुखका पटतन्तुसुत्तका इच्चेवमादिद्वत्तिंसकुलप्पभेदा किमयो आकुलव्याकुला सण्डसण्डचारिनो हुत्वा निवसन्ति, ये पानभोजनादिम्हि अविजमाने उल्लङ्घित्वा विरवन्ता हदयमंसं अभिहनन्ति, पानभोजनादिअज्झोहरणवेलायं च उद्धमुखा हुत्वा पठमझोहटे द्वे तयो आलोपे तुरिततुरिता विलुम्पन्ति, यं तेसं किमीनं सूतिघरं वच्चकुटि गिलानसाला सुसानं च होति। यत्थ, सेय्यथापि नाम चण्डालगामद्वारे चन्दनिकाय निदाघसमये थूलफुसितके देवे वस्सन्ते उदकेन वुव्हमानं मुत्तकरीसचम्मअट्ठिन्हारुखण्डखेळसिङ्घाणिकलोहितप्पभुति नानाकुणपजातं निपतित्वा कद्दमोदकालुळितं द्वीहतीहच्चयेन सञ्जातकिमिकुलं सूरियातपसन्तापवेगकुथितं उपरि फेणुपुप्फुलके मुञ्चन्तं अभिनीलवण्णं परमदुग्गन्धजेगुच्छं नेव उपगन्तुं न दटुं अरहरूपतं आपज्जित्वा तिट्ठति, पगेव घायितुं वा सायितुं वा; एवमेव नानप्पकारं पानभोजनादिदन्तमुसलसञ्चण्णितं जिव्हाहत्थपरिवत्तितखेळलालापलिबुद्धं तङ्क्षणविगतवण्णगन्धरसादिसम्पदं तन्तवायखलिसुवानवमथुसदिसं निपतित्वा पित्तसेम्हवातपलिवेठितं हुत्वा उदरग्गिसन्तपवेगकुथितं किमिकुलाकुलं उपरूपरि फेणुपुप्फुळकानि मुच्चन्तं परमकसम्बुदुग्गन्ध ३६. उदरस्थ पदार्थ- उदर (पेट) में वर्तमान, खाया पिया चबाया चाटा गया पदार्थ। वह वर्ण से-निगले गये आहार के रंग का होता है। संस्थान से-कपड़े के छन्ने में ढीले बँधे हुए चावल के आकार का है। दिशा से-ऊपरी दिशा में है। अवकाश से-उदर में स्थित है। उदर का अर्थ है आन्त्र पटल (का एक भाग) जो उस तरह फूला होता है, जैसे भीगे कपड़े को दोनों ओर से पकड़ कर निचोड़ते समय उसका बीच का भाग (इतना भर जाने से) फूल जाता है। (वह) बाहर से चिकना और भीतर से सड़े मांस के लिपटे कपड़े के गन्दे गुब्बारे के समान है। इसे सड़े कटहल के छिलके के भीतरी भाग के समान भी कहा जा सकता है। जहाँ तार्कोटक, केंचुए, ताड़हीरक, सूचीमुख, पटतन्तुक, सूत्रक आदि बीस प्रकार के क्रिमियों का समूह बौखलाया हुआ सा, झुण्ड का झुण्ड निवास करता है जो कि पेय और भोजन आदि के अभाव में उछलते कूदते, बिलखते हुए हृदय के मांस पर ही चोट करता है। पेय और भोजन आदि को निगले जाने के समय मुँह ऊपर करके, पहले गये में से दो तीन ग्रास जल्दी जल्दी गटक जाता है; जो (उदर) उन क्रिमियों का प्रसूतिगृह, शौचालय, चिकित्सालय और श्मशान होता है। जहाँ नाना प्रकार का पेय, भोजन आदि दाँतरूपी मूसलों से पीसा गया, जिह्वा रूपी हाथ से उलटा पलटा गया, लार थूक से लिपटा, उस समय रंग, रस, गंध आदि से रहित होकर, जुलाहे की खली और कुत्ते के वमन के समान, (पेट में) पड़कर पित्त, कफ, वायु से वैसे ही घिर जाता है, जैसे गर्मी के दिनों में अतिवृष्टि होने से, पानी के साथ बहता हुआ मूत्र, मल, चर्म, हड्डी, स्नायु १. इन क्रिमियों में से अनेक के बारे में यह कहना कठिन है कि आजकल के जीव-विज्ञान में इनके क्या नाम हैं। -अनु०
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy