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________________ अनुस्सतिकम्मट्ठाननिद्देसो कालं अभिधमति, कालेन कालं उदकेन परिप्फोसेति, कालेन कालं अज्झपेक्खति, तं होति जातरूपं मुदुं च कम्मञ्जं च पभस्सरं च, न च पभङ्गु, सम्मा उपेति कम्माय । यस्सा च पिळन्धनविकतिया आकङ्क्षति – यदि पट्टिकाय यदि कुण्डलाय यदि गीवेय्याय यदि सुवण्णमालाय, तं चस्स अत्थं अनुभोति । एवमेव खो, भिक्खवे, अधिचित्तमनुयुत्तेन... पे०... समाधियति आसवानं खयाय । यस्स यस्स च अभिञ्ञ सच्छिकरणीयस्स धम्मस्स चित्तं अभिनिन्नामेति अभिञ्ञासच्छिकिरियाय, तत्र तत्रेव सक्खिभब्बतं पापुणाति, सति सति आयतने" (अं० नि० १ / ३३६ ) ति । (८) इदं सुत्तं अधिचित्तं ति वेदितब्बं । ७७ "छहि भिक्खवे, धम्मेहि समन्नागतो भिक्खु भब्बो अनुत्तरं सीतिभावं सच्छिकातुं । कतमेहि छहि ? इध, भिक्खवे, भिक्खु यस्मि समये चित्तं निग्गहतेब्बं, तस्मि समये चित्तं निग्गहाति । यस्मि समये चित्तं पग्गहेतब्बं, तस्मि समये चित्तं पग्गण्हाति । यस्मि समये चित्तं सम्पहंसितब्बं, तस्मि समये चित्तं सम्पहंसेति । यस्मि समये चित्तं अज्जुपेक्खितब्बं, तस्मि समये चित्तं अपेक्खति । पणीताधिमुत्तिको च होति निब्बानाभिरतो । इमेहि खो, भिक्खवे, छहि धम्मेहि समन्नागतो भिक्खु भब्बो अनुत्तरं सीतिभावं सच्छिकातुं" (अं० ३/१७३) ति। (९) इदं सुत्तं सीतिभावो ति वेदितब्बं । बोज्झङ्गकोसल्लं पन ‘“एवमेव खो, भिक्खवे, यस्मि समये लीनं चित्तं होति, अकालो तस्मि समये पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गस्स भावनाया" (म० नि० ३ / ११७३ ) ति अप्पनाकोसल्लकथायं दस्सितमेव । (१०) पर... इसीलिए वह अपरिष्कृत सोना मृदु (लचीला), कर्मण्य ( काम में लाने योग्य) और प्रभास्वरं (चमकीला) होता है, टूटने वाला नहीं होता । वह उससे जैसा जैसा आभूषण गढ़ना चाहता हैपट्टी, कुण्डल, कण्ठहार या स्वर्णमाला - वह (सोना) उसका मन्तव्य पूरा करता है। "वैसे ही भिक्षुओ ! अधिचित्त में लगा हुआ... पूर्ववत्... आस्रवों के क्षय हेतु समाधिस्थ होता है। अभिज्ञा (अपरोक्ष ज्ञान ) के साक्षात्कार के लिये, अभिज्ञा का साक्षात्कार कराने वाले जिस जिस धर्म की ओर चित्त को उन्मुख करता है, अवसर आने पर, उसमें ही साक्षात्कार की योग्यता प्राप्त करता है। (अं० नि० १ / ३३६) । (८) इस सूत्र को अधिचित्तं (अधिचित्त) जानना चाहिये । “भिक्षुओं, छह धर्मों से युक्त भिक्षु अनुत्तर शीत-भाव के साक्षात्कार में समर्थ होता है। किन छह से? भिक्षुओ, यहाँ भिक्षु जिस समय चित्त का निग्रह करना चाहिये उस समय चित्त का निग्रह करता है । जिस समय चित्त का प्रग्रह करना चाहिये, उस समय चित्त का प्रग्रह करता है । जिस समय चित्त का सम्प्रहर्षण ( प्रोत्साहन ) करना चाहिये उस समय चित्त को सम्प्रहर्षित करता है । जिस समय चित्त की उपेक्षा करनी चाहिये उस समय चित्त की उपेक्षा करता है। प्रणीत (लोकोत्तर धर्मों) में अधिमुक्ति (दृढ़ निश्चय) वाला एवं निर्वाण में रुचि रखने वाला होता है। भिक्षुओ, इन्हीं छह धर्मों से युक्त भिक्षु अनुत्तर शीत-भाव का साक्षात्कार करने में समर्थ होता है । " (अं० नि० ३ / १७३ ) (९) इस सूत्र को सीतिभावो (शीतभाव) जानना चाहिये ।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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