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________________ विसुद्धिमग्गो ताले पतित्वा परियन्ततालमेव गच्छेय, तत्थ पि गन्त्वा लुद्देन तथेव कते पुन तेनेव नयेन आदितालं आगच्छेय्य, सो एवं पुनप्पुन परिपाटियमानो उक्कुहुक्कुट्ठिट्ठाने येव उट्ठहित्वा अनुक्कमेन एकस्मि ताले निपतित्वा तस्स वेमज्झे मकुलतालपण्णसूचिं दळ्हं गत्वा विज्झियमानो पि न उय्य, एवंसम्पदमिदं दट्टब्बं । ७४ तत्रिदं ओपम्मसंसन्दनं— यथा हि तालवने द्वत्तिंस ताला, एवं इमस्मि काये द्वत्तिंसकोट्ठासा । मक्कटो विय चित्तं । लुद्दो विय योगावचरो । मक्कटस्स द्वत्तिंसतालके तालवने निवासो विय योगिनो चित्तस्स द्वत्तिंसकोट्ठासके काये आरम्भणवसेन अनुसञ्चरणं । लुद्देन आदिम्हि ठिततालस्स पण्णं सरेन विज्झित्वा उक्कुट्टिया कताय मक्कटस्स तस्मि तस्मि ताले पतित्वा परियन्ततालगमनं विय योगिनो 'केसा' ति मनसिकारे आरद्धे परिपाटिया गन्त्वा परियोसानकोट्ठासे येव चित्तस्स सण्ठानं । पुन पच्चागमने पि एसेव नयो । पुनप्पुनं पटिपाटियमानस्स मक्कटस्स उक्कुहुक्कुट्ठिट्ठाने उट्ठानं विय पुनप्पुनं मनसिकरोतो केसुचि केसुचि उपट्ठितेसु अनुपट्ठहन्ते विस्सज्जेत्वा उपद्वितेसु परिकम्मकरणं । अनुक्कमेन एकस्मि ताले निपतित्वा तस्स मज्झे मकुळतालपण्णसूचिं दळ्हं गत्वा विज्झियमानस्स पि अनुट्ठानं विय अवसाने द्वीसु उपट्ठितेसु यो सुट्टुतरं उपट्ठाति, तमेव पुनप्पुनं मनसिकरित्वा अप्पनाय उप्पादनं। किसी बन्दर को पकड़ने का इच्छुक बहेलिया आरम्भ के ताड़ (-वृक्ष) के पत्ते पर बाण मारकर शोर मचाए और वह बन्दर बारी बारी से सभी ताड़ ( - वृक्षों) पर कूदते हुए अन्तिम वाले पर ही चला जाय। जब बहेलिया वहाँ भी जाकर वैसा ही करे, तब फिर से उसी तरह आरम्भ में स्थित ताड़ पर आ जाय । ऐसा बार बार हो और वह जिस जिस स्थान पर शोर किया जाय वहाँ से उठकर क्रमशः एक ताड़ पर कूदे और उसके बीच वाले मुकुलित ताड़ के पत्तों के नुकीले भाग को कसकर पकड़ ले (और फिर ) बाण से बिंध ही जाये, उठ न सके। ऐसा ही यहाँ भी समझना चाहिये। 1 इस उपमा का (प्रस्तुत प्रसङ्ग में) प्रयोग यों है - ताड़वन में बत्तीस ताड़ों के समान इस शरीर में बत्तीस भाग हैं। बन्दर जैसा चित्त है । बहेलिया जैसा योगी है । बत्तीस ताड़ों वाले ताड़वन में निवास के समान, योगी के चित्त को बत्तीस भागों वाले शरीर में आलम्बन के अनुसार सञ्चरण करना है ! जैसे बहेलिये द्वारा आरम्भिक ताड़ के पत्ते को बाण से बेधकर कोलाहल मचाने पर प्रत्येक ताड़ पर कूदते हुए अन्तिम ताड़ पर जा पहुँचता है, वैसे ही योगी जब 'केश' 'केश'यों चिन्तन प्रारम्भ करता है, तब उसका चित्त क्रमशः जाकर अन्तिम भाग (मूत्र) पर ही जा टिकता है । पुनः वापस आने में भी ऐसा ही होता है। जैसे कि बार बार इसी ढंग से आता जाता हुआ बन्दर जहाँ जहाँ शोर किया जाता है, वहाँ वहाँ से उठ जाता है, वैसे ही बार बार चिन्तन करते हुए किसी किसी (भाग) के उपस्थित होने पर, न उपस्थित होने वाले को छोड़ते हुए उपस्थित में प्रारम्भिक प्रयत्न (परिकर्म) का सम्पादन है। जैसे कि क्रमशः बन्दर किसी एक ताड़ पर कूद कर उसके बीच मुकुलित ताड़ की नोक को कसकर पकड़ ले और विंध जाने पर भी उठ न सके, वैसे ही अन्त में उपस्थित हुए दो में से जो अधिक अच्छी तरह उपस्थित होता हो, उसी पर बारम्बार चिन्तन करके अर्पणा का उत्पादन करता है।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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