SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 319
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६६ विसुद्धिमग्ग उच्चारपस्सावा, नवनवुतिया लोमकूपसहस्सेहि असुचिसेदयूसो पग्घरति। नीलमक्खिकादयो सम्परिवारेन्ति । यं दन्तकट्ठ-मुखधोवन-सीसमक्खन-न्हाननिवासन-पारुपनादीहि अपटिजग्गित्वा यथाजातो व फरुसविप्पकिण्णकेसो हुत्वा गामेन गामं विचरन्तो राजा पि पुप्फछड्डकचण्डालादीसु अञतरो पि समसरीरपटिकूलताय निब्बिसेसो होति, एवं असुचिदुग्गन्धजेगुच्छपटिकूलताय रो वा चण्डालस्स वा सरीरवेमत्तं नाम नत्थि। दन्तकट्ठ-मुखधोवनादीहि पनेत्थ दन्तमलादीनि पमज्जित्वा नानावत्थेहि हिरिकोपीनं पटिच्छादेत्वा नानावण्णेन सुरिभिविलेपनेन विलिम्पत्वा पुप्फाभरणादीहि अलङ्करित्वा अहं ममं ति गहेतब्बाकारप्पत्तं करोन्ति। ततो इमिना आगन्तुकेन अलङ्कारेन पटिच्छन्नत्ता तदस्स याथावसरसं असुभलक्खणं असञ्जानन्ता पुरिसा इत्थिसु, इथियो च पुरिसेसु रतिं करोन्ति। परमत्थतो पनेत्थ रज्जितब्बकयुत्तट्ठानं नाम अणुमत्तं पि नत्थि। ___ तथा हि केसलोमनखदन्तखेळसिङ्घाणिकउच्चारपस्सावादीसु एककोट्ठासं पि सरीरतो बहि पतितं सत्ता हत्थेन छुपितुं पि न इच्छन्ति अट्टियन्ति, हरायन्ति, जिगुच्छन्ति । यं यं पनेत्थ अवसेसं होति, तं तं एवं पटिकूलं पि समानं, अविजन्धकारपरियोनद्धा अत्तसिनेहरागरत्ता, इठं कन्तं निच्चं सुखं अत्ता ति गण्हन्ति । ते एवं गण्हन्ता अटवियं किंसुकरुक्खं दिस्वा रुक्खतो अपतितपुष्फं"अयं मंसपेसी"ति विहञ्जमानेन.जरसिङ्गालेन समानतं आपज्जन्ति । तस्माजहरबाद (विषव्रण) के समान नौ व्रण-मुखों से लगातार बहता रहने वाला है। जिसकी दोनों आँखों से कीचड़ (गीढ) निकलता रहता है, कान के छेदों से मैल, नाक के छेदों से सिणक (सिङ्घाणक), मुख से आहार, पित्त, श्लेष्मा (=कफ) रक्त; नीचे के द्वारों से मलमूत्र, निन्यानवे हजार रोमछिद्रों से गन्दा पसीना चूता रहता है। नीलमक्खियाँ आदि चारों ओर से घेरे रहती हैं। जिस शरीर का दातौन, मुखप्रक्षालन, सिर पर मालिश, स्रान (वस्त्र) पहनाना-ओढ़ाना आदि न कर, जैसा जन्म से है वैसे ही, रूखे बिखरे बालों वाला बने रहकर यदि गाँव-गाँव फिरता रहे, तो समान शरीर की प्रतिकूलता की दृष्टि से राजा और चाण्डाल आदि में कोई अन्तर न रह जाय। इस प्रकार अपवित्र, दुर्गन्धित, जुगुप्साजनक, प्रतिकूल होने की दृष्टि से राजा और चाण्डाल के शरीर में कोई भेद नहीं है। किन्तु दातौन, मुखप्रक्षालन आदि के द्वारा दाँत के मैल आदि का परिमार्जन कर, नाना वस्त्रों से गुप्ताङ्गों को ढंककर, अनेक रङ्गों के लेपों, अङ्गराग आदि सुगन्धित लेपों से लेपकर, पुष्पों, अलङ्कारों से अलवृत्त कर ऐसे इस कुत्सित शरीर को लोग "मैं और मेरा" इस प्रकार ममत्व ग्रहण करने योग्य बनाते हैं। इसलिये इन आगन्तुक अलङ्कारों से ढंके होने के कारण इसके यथार्थ स्वभाव को, अशुभ लक्षण को, न जानते हुए ही पुरुष स्त्रियों से और स्त्रियाँ पुरुषों से प्रेम करती हैं। किन्तु परमार्थतः तो यहाँ इस शरीर में प्रेम (राग) करने योग्य स्थान अणुमात्र भी नहीं है। और शरीर से बाहर गिरे हुए केश, रोम, नख, दाँत, थूक, सिणक, मलमूत्र आदि में से किसी को भी लोग हाथ से छूना तक नहीं चाहते, अपितु उनसे उद्विग्न होते हैं, लज्जा करते हैं, घृणा करते हैं। वैसे तो जो उस शरीर में रह जाता है, वह प्रतिकूलता में समान ही है, किन्तु अविद्यारूपी अन्धकार से आवृत होने के कारण, स्वयं के प्रति रोह के चलते रागरंक्त होकर अज्ञानी जन उस शरीर को इष्ट, कान्त, नित्य, सुख, आत्मा के रूप में ग्रहण करते हैं। इस प्रकार ग्रहण करते हुए वे लोग जङ्गल में किंशुक के वृक्ष (=जिसके फूल लाल रंग के होते हैं) को देखकर, वृक्ष से न गिरे हुए
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy