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________________ २६४ विसुद्धिमग्ग तादिसे उद्भुमातकपटिकूलं ति एवं निमित्तं गण्हितब्बं एवा ति सरीरसभावप्पत्तिवसेन दसधा असुभप्पभेदो वुत्तो ति वेदितब्बो। ४५. विसेसतो चेत्थ उद्धमातकं सरीरसण्ठानविपत्तिप्पकासनतो सण्ठानरागिनो सप्पायं। विनीलकं छविरागविपत्तिप्पकासनतो सरीरवण्णरागिनो सप्पायं। विपुब्बकं कायवणपटिबद्धस्स दुग्गन्धभावस्स पकासनता मालागन्धादिवसेन समुट्ठापितसरीरगन्धरागिनो सप्पायं । विच्छिद्दकं अन्तोसुसिरभावप्पकासनतो सरीरे घनभावरागिनो सप्पायं। विक्खायितकं मंसूपचयसम्पत्तिविनासप्पकासनतो थनादीसु सरीरप्पदेसेसु मंसूपचयरागिनो सप्पायं । विक्खित्तकं अङ्गपच्चङ्गानं विक्खेपप्पकासनतो अङ्गपच्चङ्गलीलारागिनो सप्पायं। हतविक्खित्तकं सरीरसङ्घातभेदविकारप्पकासनतो सरीरसङ्घातसम्पत्तिरागिनो सप्पायं । लोहितकं लोहितमक्खितपटिफूलभावप्पकासनतो अलङ्कारजनितसोभारागिनो सप्पायं। पुळवकं कायस्स अनेककिमिकुलसाधारणभावप्पकासनतो काये ममत्तरागिनो सप्पाये। अट्टिकं सरीरट्ठीनं पटिकूलभावप्पकासनतो दन्तसम्पत्तिरागिनो सप्पायं ति। एवं रागचरितभेदवसेना पि दसधा असुभप्पभेदो वुत्तो ति वेदितब्बो। ४६. यस्मा पन दसविधे पि एतस्मि असुभे सेय्यथापि नाम अपरिसण्ठितजलाय रूप में "उद्धमातक प्रतिकूल" आदि प्रकार से निमित्त का ग्रहण करना ही चाहिये। अतः जानना चाहिये कि शरीर-स्वभाव की प्राप्ति के अनुसार दस प्रकार से अशुभ के भेद बतलाये गये हैं।। उद्धमातक आदि का विशेष उपयोग ४५. योगी की वैयक्तिक विशेषता के अनुसार- उद्धमातक क्योंकि शारीरिक आकार की विकृति का प्रकाशन करता है, अतः उन लोगों के लिये उपयुक्त है जो कि शारीरिक आकार (=आकृति, नासिका आदि का गठन आदि) के प्रति राग से युक्त हैं। विनीलक काय के आकर्षक वर्ण की विकृति का प्रकाशक होने से, शरीर के वर्ण में राग रखने वालों के लिये उपयुक्त है। विपुब्बक काय के व्रण (घाव, फोड़ा) से सम्बद्ध दुर्गन्ध का प्रकाशक होने से, माला, इत्र आदि से उत्पन्न शरीर की सुगन्ध में राग रखने वालों के लिये उपयुक्त है। विच्छिदक-कायान्तःपाति अनन्त छिद्रों के दर्शन से शरीर में घनभाव (मोह) रखने वाले साधक के लिये अनुकूल है। विक्खायितक मांसलता रूप दैहिक सम्पत्ति की नश्वरता का प्रकाशक होने से, स्तन आदि शरीर के भागों की मांसलता के प्रति राग रखने वालों के लिये उपयुक्त है। विक्खित्तक अङ्ग प्रत्यङ्ग के छिन्न-भिन्न हो जाने का प्रकाशक होने से, अङ्ग प्रत्यङ्ग के लीला-विलास में राग रखने वालों के लिये उपयुक्त है। हतविक्खित्तक शरीर की सम्पूर्णता (सङ्घात) के भङ्ग होने और विकृत होने का प्रकाशक होने से, शरीर की सम्पूर्णता में राग रखने वालों के लिये उपयुक्त है। लोहितक-खून से लथपथ होने के कारण प्रतिकूलता का प्रकाशक होने से अलङ्कारजन्य शोभा में राग रखने वालों के लिये उपयुक्त है। पुळवक-काया के नाना क्रिमियों की राशि का आभास होना दिखाने से काया में ममत्व की प्रतिकूलता द्योतित करता है। अट्ठिक-शरीर की अस्थियों की प्रतिकूलता का प्रकाशक होने से स्वशरीर को दन्त-सम्पत्ति में राग रखने वालों के लिये उपयुक्त है। इस प्रकार रागचरित के भेद के अनुसार अशुभ का दशविध प्रभेद बतलाया गया है, ऐसा जानना चाहिये। ४६. यह अशुभ दशविध होने पर भी; जैसे चञ्चल जल के तेज बहाव वाली नदी में नाव .
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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