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________________ २४० विसुद्धिमग्ग १९. नीलकसिणवसेन नीलरूपनिम्मानं, अन्धकारकरणं, सुवण्णदुब्बण्णनयेन अभिभायतनपटिलाभो, सुभविमोक्खाधिगमो ति एवमादीनि इज्झन्ति। २०. पीतकसिणवसेन पीतकरूपनिम्मानं, सुवण्णं ति अधिमुच्चना, वुत्तनयेनेव अभिभायतनपटिलाभो, सुभविमोक्खाधिगमो चा ति एवमादीनि इज्झन्ति। २१. लोहितकसिणवसेन लोहितकरूपनिम्मानं, वुत्तनयेनेव अभिभायतनपटिलाभो, सुभविमोक्खाधिगमो ति एवमादीनि इज्झन्ति। २२. ओदातकसिणवसेन ओदातरूपनिम्मानं, थीनमिद्धस्स दूरभावकरणं, अन्धकारविधमनं, दिब्बेन चक्खुना रूपदस्सनत्थाय आलोककरणं ति एवमादीनि इज्झन्ति। २३. आलोककसिणवसेन सप्पभारूपनिम्मानं, थीनमिद्धस्स दूरभावकरणं, अन्धकारविधमनं, दिब्बेन चक्खुना रूपदस्सनत्थं आलोककरणं ति एवमादीनि इज्झन्ति। २४. आकासकसिणवसेन पटिच्छन्नानं विवटकरणं, अन्तोपथवीपब्बतादीसु पि आकासं निम्मिनित्वा इरियापथकप्पन, तिरोकुड्डादीसु असज्जमानगमनं ति एवमादीनि इज्झन्ति। २५. सब्बानेव "उद्धं अधो तिरियं अद्वयं अप्पमाणं" ति इमं पभेदं लभन्ति । वुत्तं हेतं "पथवीकसिणमेको सञ्जानाति। उद्धमधोतिरियं अद्वयमप्पमाणं" ति आदि। २६. तत्थ उद्धं ति उपरि गगनतलाभिमुखं । अधो ति हेट्ठाभूमितलाभिमुखं । तिरियं ति। खेत्तमण्डलमिव समन्ता परिच्छिन्दितं । एकच्चो हि उद्धमेव कसिणं वड्डेति, एकच्चो १८. वायुकसिण से हवा की चाल से (अतिशीघ्र) जाना, आँधी-तूफान (वातवृष्टि) उत्पन्न करना आदि सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। १९. नीलकसिण से नीले (=कृष्णवर्ण) रूपों का निर्माण, अन्धकार करना, सुवर्ण-दुर्वण के अनुसार अभिभ्वायतन की प्राप्ति, 'शुभ-विमोक्ष की प्राप्ति आदि कृत्य सिद्ध होते हैं। २०.पीतकसिण से पीले रूपों का निर्माण,(नीलकसिण के प्रसङ्ग में) उक्त विधि से (सुवर्णदुर्वर्ण आदि प्रकार से) कथित अभिभ्वावायतन एवं शुभ विमोक्ष की प्राप्ति आदि कृत्य सिद्ध होते हैं। २१. लौहितकसिण से लाल रूपों का निर्माण, उक्त प्रकार से अभिभ्वावयतन की प्राप्ति, शुभ-विमोक्ष की प्राप्ति आदि सिद्ध होते हैं। २२. अवदातकसिण से श्वेत रूपों का निर्माण, स्त्यान-मृद्ध का दूर होना, अन्धकार का नाश, दिव्यचक्षु द्वारा रूप देखने के लिये प्रकाश करना आदि लोकोत्तर कृत्य सिद्ध होते हैं। २३. आलोककसिण से प्रभास्वर रूपों का निर्माण, स्त्यानमृद्ध का दूर होना, अन्धकार का नाश, दिव्यचक्षु से रूप देखने के लिये प्रकाश करना आदि कृत्यों की सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। २४. आकाशकसिण से प्रच्छन्न (=ढके हुए) को उद्घाटित करना, पृथ्वी-पर्वत आदि के बीच भी आकाश का निर्माण कर ईर्यापथ सम्पादित करना, भित्ति (दीवार) के इस पार से उस पार निर्बाध रूप से जाना आदि सिद्ध होते हैं। २५."ऊपर, नीचे, समतल, अद्वितीय, अपरिमित" यह वर्गीकरण (=प्रभेद) सभी कसिणों पर अनिवार्य है; क्योंकि यह कहा गया है-"पृथ्वीकसिण को जानता है-ऊपर, नीचे, समतल, अद्वितीय, अपरिमित" आदि। २६. इनमें उद्धं (ऊपर)-ऊपर आकाश तल की ओर । अधो (नीचे)-नीचे भूमि तल की
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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