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________________ ४. पथवीकसिणनिद्देस २२१ (१०) या पन "उपेक्खासतिपरिसुद्धिं चतुत्थं झानं" ति एवमागता सब्बपच्चनीकपारिसुद्धा पच्चनीकवूपसमने पि अब्यापारभूता उपेक्खा, अयं पारिसुद्धिउपेक्खा नाम। ६६. तत्र छळगुपेक्खा च ब्रह्मविहारुपेक्खा च बोज्झनुपेक्खा च तत्रमज्झत्तुपेक्खा च झानुपेक्खा च पारिसुद्धपेक्खा च अत्थतो एका, तत्रमज्झत्तुपेक्खा व होति। तेन तेन अवत्थाभेदेन पनस्सा अयं भेदो, एकस्सा पिसतो सत्तस्स कुमारयुवथेरसेनापतिराजादिवसेन भेदो विय। तस्मा तासु यत्थ छळङ्गपेक्खा, न तत्थ बोज्झङ्गपेक्खादयो। यत्थ वा पन बोज्झनुपेक्खा, न तत्थ छळछुपेक्खादयो होन्ती ति वेदितब्बा।। ६७. यथा चेतासमत्थतो एकीभावो, एवं सङ्घारुपेक्खाविपस्सनुपेक्खानं पि। पञ्जा एव हि सा किच्चवसेन द्विधा भिन्ना। यथा हि पुरिसस्स सायं गेहं पविटुं सप्पं अजपददण्डं गहेत्वा परियेसमानस्स तं थुसकोट्ठके निपन्नं दिस्वा "सप्पो नुखो, नो" ति अवलोकेन्तस्स सोवत्तिकत्तयं दिस्वा निब्बेमतिकस्स "सप्पो, न सप्पो" ति विचिनने मज्झत्तता होति; एवमेव या आरद्धविपस्सकस्स विपस्सनाआणेन लक्खणत्तये दिढे सङ्घारानं अनिच्चभावादिविचिनने मज्झत्तता उप्पज्जति, अयं विपस्सनुपेक्खा नाम। यथा पन तस्स पुरिसस्स अजपददण्डेन गाळ्हं सप्पं गहेत्वा "किं ताहं इमं सप्पं अविहेठेन्तो अत्तानं च इमिना अडंसापेन्तो मुञ्चेय्यं" ति मुञ्चनाकारमेव परियेसतो गहणे मज्झत्तता होति; एवमेव या लक्खणत्तयस्स दिट्ठत्ता आदित्ते विय तयो भवे पस्सतो सङ्खारगहणे मज्झत्तता, अयं (१०)"उपेक्षा द्वारा परिशुद्ध स्मृति से युक्त चतुर्थ ध्यान"-इस प्रकार वर्णित, सभी विरुद्ध धर्मों से चित्त की परिशुद्धि पूर्व में हो जाने से, विरोधी धर्मों के उपशम के प्रति अनुद्योग रूप जो उपेक्षा है, वह परिशुद्धि-उपेक्षा कहलाती है। ६६. इनमें, षडङ्ग-उपेक्षा, ब्रह्मविहार-उपेक्षा, बोध्यङ्ग-उपेक्षा, तत्रमध्यस्थ-उपेक्षा, ध्यानउपेक्षा एवं परिशुद्धि-उपेक्षा, अर्थतः एक ही हैं, अर्थात् ये सब तत्रमध्यस्थ-उपेक्षा के अन्तर्गत हैं, केवल अवस्थाओं के भेद के अनुसार यह भेद है; जैसे कि सत्त्व प्राणी एक होने पर भी बालक, युवा, वृद्ध, सेनापति, राजा आदि के रूप में भिन्न-भिन्न होता है। इसलिये यह समझना चाहिये कि उन दस प्रकार की उपेक्षाओं में जहाँ षडङ्ग-उपेक्षा होती है, वहाँ बोध्यङ्ग-उपेक्षा आदि नहीं होती। अथवा, जहाँ बोध्यङ्ग-उपेक्षा होती है, वहाँ षडङ्ग-उपेक्षा आदि नहीं होती। ६७. एवं जैसे ये अर्थतः एक हैं, वैसे ही संस्कार-उपेक्षा और विपश्यना-उपेक्षा को भी समझें; क्योंकि वह प्रज्ञा ही है जो कृत्य (कार्य) के अनुसार दो प्रकार से विभक्त है। जैसे कोई पुरुष सायङ्काल घर में घुसे हुए सर्प को अजपददण्ड (-एक विशेष प्रकार का डण्डा जिसका निचला भाग बकरी के खुर के समान होता है) लेकर खोजते हुए उसे अनाज रखने वाली कोठरी में घुसा देखर 'यह सर्प है या नहीं'-ऐसा (सोचते हुए उसे ध्यान से) देखे तो तीन स्वस्तिक (सोवत्तिक-सर्प की ग्रीवा पर पड़ी हुई रेखाएँ) देखकर सन्देहरहित हो चुके उस पुरुष को "यह सर्प है या नहीं इस प्रकार गवेषणा करने में मध्यस्थता होती है, उसी प्रकार विपश्यना का प्रारम्भ कर चुके भिक्षु को विपश्यनाज्ञान द्वारा लक्षणत्रय दीख जाने पर, संस्कारों के अनित्यभाव आदि के अन्वेषण में जो मध्यस्थता उत्पन्न होती है, वह विपश्यना-उपेक्षा है। और जैसे उस पुरुष को, अजपद दण्ड द्वारा सर्प को कसकर पकड़कर "कैसे में इस सर्प को विना सताये और स्वयं को विना डॅसवाये छोडूं"-इस प्रकार छोड़ने के प्रकार का अन्वेषण करते हुए पकड़ने में मध्यस्थता होती है, वैसे ही लक्षणत्रय दीख जाने से तीनों भवों को जलता हुआ सा देखते हुए, संस्कार के ग्रहण में जो मध्यस्थता होती है, वह
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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