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४. पथवीकसिणनिद्देस
२१९ १३३)ति एवं पहानं वुच्चमानं वण्णभणनं होति, तदधिगमाय उस्सुक्कानं उस्साहजनकं; एवमेव इध अवूपसन्तानं पि वितक्कविचारानं वूपसमो वुच्चमानो वण्णभणनं होति । तेनायमत्थो वुत्तो-"पीतिया च समतिकमा वितक्कविचारानं च वूपसमा" ति।।
६५. उपेक्खको च विहरती ति। एत्थ उपपत्तितो इक्खती ति उपेक्खा। समं पस्सति, अपक्खपतिता हुत्वा पस्सती ति अत्थो। ताय विसदाय विपुलाय थामगताय समन्नागतत्ता ततियज्झानसमङ्गी उपेक्खको ति वुच्चति।
उपेक्खा पन दसविधा होति-छळङ्गपेक्खा, ब्रह्मविहारुपेक्खा, बोज्झनुपेक्खा, विरियुपेक्खा, सङ्घारुपेक्खा, वेदनुपेक्खा, विपस्सनुपेवखा, तत्रमज्झत्तुपेक्खा, झानुपेक्खा, पारिसुद्धिउपेक्खा ति।
(१) तत्थ या "इध, भिक्खवे, भिक्खु चक्खुना रूपं दिस्वा नेव सुमनो होति, न दुम्मनो, उपेक्खको च विहरति सतो सम्पजानो" (अं० नि० ३-३) ति एवमागता खीणासवस्स छसु द्वारेसु इट्ठानिट्ठछळारम्मणापाथे परिसुद्धपकतिभावाविजहनाकारभूता उपेक्खा,अयं छळङ्गपेक्खा नाम।
(२) या पन "उपेक्खासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरती" ति एवमागता सत्तेसु मज्झत्ताकारभूता उपेक्खा, अयं ब्रह्मविहारुपेक्खा नाम। ' (३) या "उपक्खासम्बोज्झङ्गं भावेति विवेकनिस्सितं" ति एवमागता सहजातधम्मानं मज्झत्ताकारभूता उपेक्खा, अयं बोज्झङ्गपेक्खा नाम।
२. विचिकित्सा, ३ शीलव्रतपरामर्श, ४ कामच्छन्द एवं ५ व्यापाद) का प्रहाण" (दी० १.१३३) इस प्रकार प्रथम तीन सयोजनों के स्रोतआपत्ति मार्ग में प्रहीण हो जाने पर भी पुनः उनका प्रहाण कहे जाने से गुण-कथन होता है। उस तृतीय मार्ग की प्राप्ति के लिये उत्सुकता व उत्साह बढ़ता है; इसी प्रकार यहाँ तृतीय ध्यान में उपशमित न होने वाले वितर्क और विचार का उपशम कहे जाने से गुण -कथन होता है। अतः इसका यह आशय है- "प्रीति का समतिक्रमण और वितर्क विचार का उपशम हो जाने से।" .
६५. उपेक्खको च विहरति (उपेक्षा के साथ विहार करता है)- वस्तुओं या घटनाओं की उपपत्ति (उत्पत्ति, उद्भव) के अनुसार उन्हें देखती है ( ईक्षण करती है) अतः उपेक्षा' कही जाती है। अर्थात् सम भाव से देखती है, पक्षपातरहित होकर देखती है। उस स्पष्ट (विशद), प्रभूत (विपुल), सुदृढ़ युक्त होने के कारण, ध्यानप्राप्त भिक्षु 'उपेक्षा से युक्त कहा जाता है।
उपेक्षा दस प्रकार की होती है- १. षडङ्ग (-छ. अङ्गों वाली) उपेक्षा, २. ब्रह्मविहार-उपेक्षा, ३. बोध्यङ्ग-उपेक्षा, ४. वीर्य-उपेक्षा, ५. संस्कार-उपेक्षा, ६. वेदना-उपेक्षा. ७. विपश्यना-उपेक्षा, ८. तत्रमध्यस्थ-उपेक्षा, ९. ध्यानउपेक्षा एवं १० परिशुद्धि-उपेक्षा ।
(१) इनमें, जो "भिक्षुओ, यहाँ भिक्षु चक्षु से रूप देखकर न प्रसन्न होता है, न अप्रसन्न, उपेक्षायुक्त होकर स्मृति और सम्प्रजन्य के साथ विहार करता है"-इस प्रकार वर्णित, छह इन्द्रिय द्वारों पर इष्ट-अनिष्ट (=प्रिय-अप्रिय) छह आलम्बनों के उपस्थित होने पर, क्षीणास्रव की जो परिशुद्ध प्रकृति भावरूप (स्वभावतः विशुद्ध होना) उपेक्षा है, उसे षडङ्ग-उपेक्षा कहते हैं।
(२) "उपेक्षासहगत चित्त से एक दिशा को सर्वांशतः ध्यान में लेकर साधना करता है"- इस प्रकार वर्णित, सत्त्वों के प्रति मध्यस्थता के रूप में रहने वाली जो उपेक्षा है, वह ब्रह्मविहार-उपेक्षा है।