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Explanation of the 32 Defects in Vandana (Veneration)
1. Anadrita Dosha - Performing vandana without reverence or respect.
2. Stabdha Dosha - Performing vandana under the influence of eight types of pride.
3. Apaviddha Dosha - Leaving abruptly after an incomplete vandana.
4. Paripandita Dosha - Performing a single vandana for a group or doing vandana with both hands on the abdomen and both feet together, or reciting the sutras without pausing at the appropriate places.
5. Tolagati Dosha - Performing vandana with unsteadiness, like a grasshopper.
6. Ankusha Dosha - Holding or pulling the guru's cloth, hair, or other belongings, or forcibly seating the guru on the seat or making them stand up, which is disrespectful.
7. Kacchapariṅgita Dosha - Reciting the sutras while standing or sitting, or crawling back and forth during vandana without reason, like a tortoise.
8. Matsyodvartana Dosha - Suddenly diving down and then springing up to perform vandana, or jumping up during vandana as if falling, and then quickly sitting down, or changing positions rapidly like a fish.
9. Manaḥpraduṣṭa Dosha - Performing vandana with resentment or contempt towards the guru due to their reprimand, or thinking "How can I venerate this person of inferior qualities?"
10. Vedikābaddha Dosha - Keeping the hands between or outside the knees, or on one knee, instead of keeping them on both knees during the circular movements of vandana.
11. Bhaya Dosha - Performing vandana out of fear of being expelled from the sangha, community, or region.
12. Bhajanta Dosha - Performing vandana or service with the expectation of receiving favors or service in return.
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वंदन के ३२ दोषों पर विवेचन
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १२९ होनी चाहिए। यह वंदन यथाजात कहलाता है । ३. तथा बारह - आवर्त - गुरुमहाराज को द्वादशावर्त वंदन करते समय | गुरुचरणों में तथा अपने मस्तक पर हाथ से स्पर्श करके प्रथम प्रवेश कर अहो कायं इत्यादि सूत्र उच्चारण करते हुए | छह आर्वत करना; फिर दूसरी बार प्रवेश करे, तब भी दूसरी बार छह आवर्त्त करना, इन दोनों के मिलाकर बारह आवर्त | होते हैं । १५. चउस्सिर - जिसमें चार बार मस्तक नमाना पड़ता है, प्रथम वंदन में शिष्य द्वारा इच्छामि खमासमणो बोलते | मस्तक नमाना, बाद में गुरु भी 'अहमवि खामेमि' ऐसा उत्तर देते हुए कुछ सिर नमाते हैं, इस तरह गुरु-शिष्य दोनों का मस्तक नमाना, इसी प्रकार दूसरी बार वंदन मिलकर कुल चार बार मस्तक नमाना । १९. त्रिगुप्त- मन, वचन और | काया के योग से एकाग्रता पूर्वक वंदन करना; इस तरह तीन वंदन २२. दुप्पवेस - गुरुमहाराज के आसन से प्रत्येक दिशा
में साड़े तीन हाथ तक के स्थान का गुरु- अवग्रह होता है। अतः दूर रहकर गुरु का विनय करना, फिर शारीरिक सेवा| वंदनादि के लिए उनकी आज्ञा लेकर उस अवग्रह में प्रवेश करना, यह प्रथम आज्ञा लेकर प्रवेश है और बाद में फिर | निकलकर दूसरी बार प्रवेश करे, यह एक निष्क्रमण (अवग्रह से बाहर निकलना) है। दुसरे वंदन में आवस्सिआए कहकर | बाहर निष्क्रमण नहीं होता। इस तरह दो बार प्रवेश और एक निष्क्रमण मिलाकर कुल पच्चीस आवश्यक वंदन | जानना । ( आ. नि. १२२१ - १२२५ )
वंदन के ३२ दोष – १. अनादृत, २. स्तब्ध, ३. अपविद्ध, ४. परिपंडित, ५. टोलगति, ६. अंकुश, ७. कच्छपरिगित, ८. मत्स्योद्वर्तन, ९. मनःप्रदुष्ट, १०. वेदिकाबद्ध, ११. भय, १२. भजंत, १३. मैत्री, १४. गौरव, १५. करण, १६. स्तेन, १७. प्रत्यनीक, १८. रुष्ट, १९. तर्जना, २०. शठ, २१. हीलित, २२. विपरिकुंचित, २३. दृष्टादृष्ट, २४. शृंग, | २५. कर, २६. मुक्त, २७. आश्लिष्टानाश्लिष्ट, २८. न्यून, २९. उत्तरचूडा, ३०. मूक, ३१. ढड्ढर और ३२. चूडलिदोष; | ये वंदन के बत्तीस दोष हैं, जिन्हें त्यागकर विधि पूर्वक वंदन करना चाहिए ।
व्याख्या - १. अनादृतदोष - आदर-सत्कार के बिना शून्यचित्त से वंदन करना, २. स्तब्धदोष - आठ प्रकार के मद के वश होकर वंदन करना, ३. अपविद्धदोष-अधूरे - अपूर्ण वंदन करके भाग जाना, ४. परिपंडितदोष – एक साथ सभी | को इकट्ठा एक ही वंदन करना अथवा दो हाथ पेट पर तथा दोनों पैर इकट्ठे करके वंदन करना या सूत्र - उच्चारण करने में अक्षर-संपदाओं के यथायोग्य स्थान पर रुके बिना एक साथ ही अस्पष्ट उच्चारण करना, ५ . टोलगति - टिड्डी की | तरह फुदक-फुदककर अस्थिरता से वंदन करना, ६. अंकुश - गुरुमहाराज खड़े हो या सोये हों अथवा अन्य कार्य में | लगे हों; उसी समय उनका रजोहरण, चोलपट्टा, वस्त्र आदि हाथ से पकड़कर अथवा अवज्ञा से हाथी पर अंकुश लगाने की तरह खड़े हुए गुरु को आसन पर बिठाना और प्रयोजन पूर्ण होने पर या वंदन करने के बाद आसन से उठाना। | पूज्यपुरुषों के साथ इस प्रकार की खींचातानी करना योग्य नहीं है; ऐसा करने से उनका अविनय होता है अथवा रजोहरण पर अंकुश के समान हाथ रखकर वंदन करना अथवा अंकुश से पीड़ित हाथी के समान वंदन करते हुए सिर | हिलाना । ७. कच्छपरिंगित - खड़े-खड़े ही तित्तिसणयराए इत्यादि सूत्र बोलना अथवा बैठे-बैठे ही अहोकायं कार्यं |इत्यादि पाठ बोलना, वंदन करते समय बिना कारण कछुए के समान आगे पीछे रेंग कर वंदन करना । ८. मत्स्योद्वर्तन| मछली जैसे जल में एकदम नीचे जाकर फिर ऊपर उछल आती है, वैसे ही करवट बदलकर एकदम रेचकावर्त करके | उछलकर वंदन करे अथवा वंदन करते समय उछलकर खड़ा होना, मानो गिर रहा हो, इस तरह से बैठ जाना, एकदम | वंदन करके मछली के समान करवट बदलकर दूसरे साधु के पास वंदन करना । ९. मनः प्रदुष्ट- गुरु महाराज ने शिष्य को कोई उपालंभ दिया हो, इससे रुष्ट होकर उनके प्रति मन में द्वेष रखकर वंदन करना अथवा अपने से हीन गुण वाले को मैं कैसे वंदन करूं? 'या' ऐसे गुणहीन को क्यों वंदन किया जाय ? ऐसा विचार करते हुए वंदन करना। १०. | वेदिकाबद्ध - वंदन में आवर्त्त देते समय दोनों हाथ दोनों घुटनों के बीच में रहना चाहिए, उसके बदले दोनों हाथ घुटनों पर रखे अथवा घुटनों के नीचे हाथ रखे, या गोद में हाथ रखे, दोनों घुटनों के बाहर अथवा बीच में हाथ रखे या एक घुटने पर हाथ रखे और वंदन करे, इस तरह इसके पांच भेद है । ११. भय - इन्हें वंदन नहीं करूंगा तो संघ, समुदाय, गच्छ या क्षेत्र से बाहर या दूर कर देंगे; इस भय से वंदन करना । १२. भजंत - मैं वंदन आदि से इन्हें खुश करता हूं। या सेवा करता हूं, इसलिए गुरु आदि भी मेरी सेवा करेंगे; मेरे द्वारा सेवा करने से भविष्य में मेरी सेवा होगी; ऐसा
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