Disclaimer: This translation does not guarantee complete accuracy, please confirm with the original page text.
Preservation of Jain Terms in English Translation:
Renunciation of Pramadacarana (Careless Conduct) and the Characteristics of the Samayika Vrata (Introspective Contemplation Vow)
From Sloka 78 to 81 of the Third Prakasha (Illumination) of the Yogashastra.
78. Observing with curiosity the singing, dancing, and drama; attachment to the Kamashastra (treatise on erotic love); indulgence in gambling, intoxicants, etc.
79. Enjoyment of water sports, swinging, etc.; fighting among animals; enmity with the son or other relatives of the enemy; idle gossip about food, country, and the king.
80. Abandoning the fatigue of illness or travel, and sleeping throughout the entire night - the wise person should renounce such Pramadacarana (careless conduct).
81. In the Jinendra's (Jina's) abode, one should renounce indulgence, laughter, spitting, sleep, quarrel, and evil speech, as well as the four types of Ahara (intake of food).
Explanation:
The text discusses various forms of Pramadacarana, such as indulging in sensual pleasures, attachment to erotic literature, gambling, intoxicants, animal fights, holding grudges against enemies and their family members, idle gossip about food, country, and the king, and excessive sleep. It then emphasizes that the wise Shravaka (Jain lay follower) should renounce these Pramadacarana. Additionally, the text highlights that within the Jinendra's (Jina's) abode, one should refrain from indulgence, laughter, spitting, sleep, quarrel, evil speech, and the four types of Ahara (intake of food).
________________
प्रमादाचरणरूप अनर्थदंड का त्याग एवं सामायिकव्रत का लक्षण
योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक ७८ से ८१ ।२४९। कुतूहलाद् गीत-नृत्त-नाटकादिनिरीक्षणम् । कामशास्त्रप्रसक्तिश्च, द्यूतमद्यादिसेवनम् ॥७८॥ ।२५०। जलक्रीडान्दोलनादि विनोदो जन्तुयोधनम् । रिपोः सुतादिना वैरं, भक्तस्त्रीदेशराटकथा ॥७९॥ ।२५१। रोगमार्गश्रमौ मुक्त्वा, स्वापश्च सकलां निशाम् । एवमादि परिहरेत्, प्रमादाचरणं सुधीः ।।८०॥ अर्थ :- कुतूहलपूर्वक गीत, नृत्य, नाटक आदि देखना; कामशास्त्र में आसक्त रहना; जूआ, मदिरा आदि का सेवन
करना, जलक्रीड़ा करना, झूले आदि का विनोद करना, पशुपक्षियों को आपस में लड़ाना, शत्रु के पुत्र आदि के साथ भी वैर-विरोध रखना, स्त्रियों की खाने-पीने की, देश एवं राजा की व्यर्थ की ऊलजलूल विकथा करना, रोग या प्रवास की थकान को छोड़कर सारी रातभर सोते रहना; इस प्रकार के
प्रमादाचरण का बुद्धिमान पुरुष त्याग करे ।।७८-८०।। व्याख्या :- कुतूहलवश गीत सुनना, नृत्य, नाटक, सिनेमा, टी. वी. आदि देखना, कुतूहलवश इंद्रिय-विषय का अत्यधिक उपभोग करना। यहां मूल में 'कुतूहल' शब्द होने से जिनयात्रा आदि प्रसंगों पर प्रासंगिक खेल-तमाशे देखे जाय तो वह प्रमादाचरण नहीं है। वात्स्यायन आदि के बनाये हुए कामशास्त्र या कोकशास्त्र को बारबार पढ़ना, उसमें अधिक आसक्ति रखना तथा पासों आदि से शतरंज या जुआ खेलना, मदिरापान करना आदि शब्द से शिकार खेलना; उसका मांस-सेवन करना इत्यादि, एवं जलक्रिड़ा करना; यानी तालाब, नदी, कुएँ आदि में डुबकी लगाकर स्नान करना, पिचकारी से जल छींटना आदि तथा वृक्ष की शाखा से झूला बांधकर झूलना आदि शब्द से व्यर्थ ही पत्ते आदि तोड़ना तथा मुर्गे आदि हिंसक प्राणियों को परस्पर लड़ाना; शत्रु के पुत्र-पौत्रादि के साथ वैरभाव रखना; किसी के साथ वैर चल रहा है तो उसका किसी भी प्रकार से त्याग न करना; बल्कि उसके पुत्र-पौत्र आदि के साथ भी वैर रखना; ये सब प्रमादाचरण हैं। तथा भक्तकथा - 'यह पकाया हुआ मांस या उड़द के लड्डु आदि अच्छे व स्वादिष्ट हैं; उसको अच्छा भोजन कराया; अतः मैं भी वही भोजन करूंगा।' इस प्रकार भोजन के बारे में घंटों बातें करना भक्त-विकथा है। स्त्रीकथा- स्त्री के वेश, अंगोपांग की सुंदरता या हाव-भाव की प्रशंसा करना; जैसे-कर्णाटक देश की स्त्रियाँ कामकला में कुशल होती हैं और लाटदेश की स्त्रियाँ चतुर और प्रिय होती है, इत्यादि स्त्रीकथा है। देशकथा – 'दक्षिणदेश में अन्न-पानी बहुत सुलभ होता है, परंतु वह स्त्री-संभोग-प्रधान देश है। पूर्वदेश में विविध वस्त्र, गुड़, खांड, चावल, मद्य आदि बहुत मिलता है, उत्तरप्रदेश में लोग बड़े शूरवीर हैं, वहां घोड़े तेजतर्रार होते हैं, गेहूं अधिक पैदा होता है, केसर आदि सुलभ है। वहां किशमिश, दाडिम, कैथा आदि फल बहुत मधुर होते हैं; पश्चिम देश के बने हुए कपड़े कोमल व सुहावने होते हैं; वहां ईख बहुत मिलती है; वहां का पानी बहुत ठंडा होता है;' इत्यादि प्रकार के गपशप लगाना। राजकथा - जैसे कि 'हमारा राजा बहादूर है। गौड़ देश के राजा के पास बहुत धन है। गौड़देश के राजा के पास हाथी बहुत हैं, तुर्किस्तान के राजा के पास तुर्की घोड़े बहुत हैं; वर्तमान में पार्टी एवं नेता के विषय में बातें करना, इत्यादि। इस प्रकार दुनियाभर की गप्पें हांकना राजकथा है। इसी प्रकार खाद्य पदार्थों के संबंध में प्रतिकूल कथा करनी भी सबकी सब विकथा है। रोग आदि या मार्ग के परिश्रम के सिवाय सारी रात सोते रहना प्रमाद है। रोग या मार्ग की थकान के कारण सोना प्रमादाचरण नहीं कहलाता ।।७८-८०।।
बुद्धिशाली श्रावक पूर्वोक्त प्रमादाचरणों का त्याग करे। प्रमादाचरण के और भी प्रकार बताते हैं-मद्य, विषय, कषाय, निंदा, विकथा ये पांच प्रकार के प्रमाद है। ये पांचों प्रमाद जीव को संसार में भटकाते हैं। (उत्त. नि. १८०) इस तरह पांचों प्रमादों का विस्तार से वर्णन किया। अब स्थान-विशेष में प्रमाद के त्याग के संबंध में कहते हैं।२५२। विलास-हास-निष्ठ्यूत-निद्रा-कलह-दुष्कथाः । जिनेन्द्र-भवनस्यान्तराहारं च चतुर्विधम् ॥८१।। ___अर्थ :- जिनालय में विलास, हास्य, थूकना, निद्रा, कलह, दुष्कथा और चारों प्रकार के आहार का त्याग करना
चाहिए ।।८।। .. व्याख्या :- जिनभवन में कामचेष्टा या भोगविलास करने, ठहाके मारकर हंसने, थूकने, सोने, लड़ाई-झगड़ा करने, चोर, परस्त्री आदि की कथा करने एवं अशन-पान-खाद्य-स्वाद्य-रूप चार प्रकार के आहार करने का त्याग करना चाहिए। ये सभी कार्य प्रमादाचरण रूप हैं। श्रावक इन्हें छोड़ दे। इनमें चावल आदि अन्न, मूंग, सत्तू, पीने के पदार्थ,
207