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## The Evils and Irony of Alcohol and Meat **Yoga Shastra, Third Light, Verses 17-19** **Verse 17:** * **Text:** "Madyaṁ doṣāṇāṁ kāraṇaṁ, madyaṁ kāraṇam āpadām | Rogātūra ivāpathyaṁ, tasmān madyaṁ vivarjayet ||17||" * **Meaning:** Just as it is essential for a sick person to abstain from harmful food, so too is it essential to completely abandon alcohol, which is harmful to life, as it is the cause of many vices like theft, adultery, and the source of many calamities like killing, imprisonment, etc. **Explanation:** What evil deed does a person not commit after drinking alcohol? A drunkard can commit all kinds of misdeeds like theft, adultery, hunting, robbery, murder, etc. There is no evil deed from which he can refrain. Therefore, it is right to completely abandon alcohol, the mother of all evils, from afar. **Verse 18:** * **Text:** "Cikhādiṣati yo māṁsaṁ, prāṇi prāṇāpahārataḥ | Unmūlayatyasau mūlaṁ, dayākhyaṁ dharmaśākhinaḥ ||18||" * **Meaning:** It is not possible to obtain meat without killing living beings. And the person who desires to eat such meat, uproots the root of compassion, which is the branch of Dharma. **Verse 19:** * **Text:** "Aśanīyan saṁ sadā māṁsaṁ, dayāṁ yo hi cikiṣati | Jvalati jvalane vallīṁ, sa ropayitu micchati ||19||" * **Meaning:** To those who say that even meat-eaters can be compassionate, we explain: It is like wanting to plant a vine in a burning fire.
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________________ मद्यपान एवं मांस से होने वाले अनर्थ और विडंबना योगशास्त्र तृतीय प्रकाश श्लोक १७ से १९ ।१८८। दोषाणां कारणं मद्यं, मद्यं कारणमापदाम् । रोगातुर इवापथ्यं, तस्मान्मद्यं विवर्जयेत् ।।१७।। अर्थ :- रुग्ण मनुष्य के लिए जैसे अपथ्य भोजन का त्याग करना जरूरी होता है; वैसे ही चोरी, परस्त्रीगमन अनेक दोषों की उत्पत्ति के कारण तथा वध (मारपीट), बंधन (गिरफ्तारी) आदि अनेक संकटों के कारण व जीवन के लिए अपथ्य रूप मद्य का सर्वथा त्याग करना जरूरी है ।।१७।। व्याख्या :- शराब पीने से कौन-सा अकार्य (कुकृत्य) नहीं है, जिसे आदमी नहीं कर बैठता? चोरी, जारी, शिकार, लूट, हत्या आदि तमाम कुकर्म मद्यपी कर सकता है। ऐसा कोई कुकर्म नहीं, जिससे वह बचा रह सके। इसलिए यही उचित है कि ऐसी अनर्थ की जननी शराब को दूर से ही तिलांजलि दे दे। इस संबंध में कुछ आंतर श्लोक भी है, जिनका अर्थ यहां प्रस्तुत करते हैं शराब के रस में अनेक जंतु पैदा हो जाते हैं। इसलिए हिंसा के पाप से भीरु लोग हिंसा के इस पाप से बचने के लिए मद्यपान का त्याग करें। मद्य पीने वाले को राज्य दे दिया हो, फिर भी वह असत्यवादी की तरह कहता है-नहीं दिया, किसी चीज को ले ली हो, फिर भी कहता है-नहीं ली। इस प्रकार गलत या अंटसंट बोलता है। बेवकूफ शराबी मारपीट या गिरफ्तारी आदि की ओर से निडर होकर घर या बाहर रास्ते में सर्वत्र पराये धन को बेधड़क झपटकर छीन लेता है। शराबी नशे में चूर होकर बालिका हो, युवती हो, बूढ़ी हो, ब्राह्मणी हो या चांडाली; चाहे जिस परस्त्री के साथ तत्काल दुराचार सेवन कर बैठता है। वह कभी गाता है, कभी लेटता है, कभी दौड़ता है, कभी क्रोधित होता है, कभी खुश हो जाता है, कभी हंसता है, कभी रोता है, कभी ऐंठ में आकर अकड़ जाता है, कभी चरणों में झुक जाता है, कभी इधर-उधर टहलने लगता है, कभी खड़ा रहता है। इस प्रकार मद्यपी अनेक प्रकार के नाटक करता है। सुनते हैं-कृष्णपुत्र शांब ने शराब के नशे में अंधे होकर यदुवंश का नाश कर डाला और अपने पिता की बसाई हुई द्वारिकानगरी जलाकर भस्म करवा दी। प्राणिमात्र को कवलित करने वाले काल-यमराज के समान मद्य पीने वाले को बार-बार पीने पर भी तृप्ति नहीं होती। अन्य धर्म-संप्रदायों के धर्मग्रंथों-पुराणों एवं लौकिक ग्रंथों में मद्यपान से अनेक दोष बताये हैं और उसे त्याज्य भी बताया है। इसी मद्यनिषेध के समर्थन में अजैन ग्रंथों में कहा है- 'एक ऋषि बहुत तपस्या करता था। इंद्र ने उसको उग्रतप करते देख अपने इंद्रासन छिन जाने की आशंका से भयभीत होकर उस ऋषि को तपस्या से भ्रष्ट करने के लिए देवांगनाएँ भेजी। देवांगनाओं ने ऋषि के पास आकर उसे नमस्कार, विनय, मृदुवचन, प्रशंसा आदि | से भलीभांति खुशकर दिया। जब वे वरदान देने को तैयार हुई तो ऋषि ने अपने साथ सहवास करने को कहा। इस पर उन देवांगनाओं ने शर्त रखी-'अगर हमारे साथ सहवास करना चाहते हों तो पहले मद्य-मांस का सेवन करना होगा।' ऋषि ने मद्य-मांस-सेवन को नरक का कारण जानते हुए भी कामातुर होकर मद्य-मांस का सेवन करना स्वीकार किया। अब ऋषि उन देवांगनाओं के साथ बुरी तरह भोग में लिपट गया। अपनी की-कराई सारी तपस्या नष्ट कर डाली। मद्य पीने से उसकी धर्म-मर्यादा नष्ट हो गयी; अर्थात् विषयग्रस्तता और मदांधता से उस ऋषि ने मांस खाने के लिए बकरे को मारने आदि के सभी कुकृत्य किये। अतः पाप के मूल, नरक के मार्ग, समस्त आपदाओं के स्थान, अपकीर्ति कराने वाले, दुर्जनों के द्वारा सेव्य एवं सर्वगुणी जनों के द्वारा निंदित मदिरा का श्रावक को सदैव त्याग करना चाहिए ॥१७॥ ___ अब मांसाहार से होने वाले दोषों का वर्णन करते हैं।१८९। चिखादिषति यो मांसं, प्राणि प्राणापहारतः । उन्मूलयत्यसौ मूलं, दयाख्यं धर्मशाखिनः ।।१८।। अर्थ :- प्राणियों के प्राणों का नाश किये बिना मांस मिलना संभव नहीं है। और जो पुरुष ऐसा मांस खाना चाहता है, वह धर्म रूपी वृक्ष के दया रूपी मूल को उखाड़ डालता है ॥१८॥ मांस खाने वाले भी प्राणिदया कर सकते हैं; इस प्रकार कहने वाले को समझाते हैं||१९०। अशनीयन् सदा मांसं, दयां यो हि चिकीर्षति । ज्वलति ज्वलने वल्लीं, स रोपयितुमिच्छति ॥१९॥ 192
SR No.002418
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherLehar Kundan Group
Publication Year
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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