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Harms of Associating with Unchaste Women Yogashastra, Second Canto, Verses 89-94: 1. Who would want to kiss the false and dirty mouth of a prostitute, which is like stale and foul-smelling food, due to meat-eating, drinking alcohol, and being kissed by many lovers? (89) 2. Even after a lustful man has given away all his wealth to a courtesan, when he becomes destitute, the prostitute desires to snatch away even the clothes he is wearing as he departs. (90) 3. The man addicted to a courtesan neither respects the gods, nor the gurus, nor his friends and relatives, for he delights only in bad company. (91) 4. The courtesan, driven by the desire for wealth, looks upon even lepers as if they were Cupid, and displays feigned affection, but the wise should renounce such a heartless courtesan from a distance. (92) 5. Even the followers of the ascetic path should not serve their own wives with attachment, let alone the wives of others, which are the source of all sins. (93) 6. A woman who abandons her husband and indulges in an illicit relationship with another man, how can one have trust in the fickleness of her mind? (94)
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________________ दुश्चरित्र स्त्रियों के साथ सहवास से हानियाँ योगशास्त्र द्वितीय प्रकाश श्लोक ८९ से ९४ अर्थ :- मांस खाने के कारण बदबूदार, शराब पीने के कारण दुगंधित तथा अनेक जार पुरुषों के द्वारा चुंबन किये हुए, उच्छिष्ट (झूठे) भोजन की तरह झूठे व गंदे वैश्या के मुख को कौन चुमना चाहेगा? ।।८।। ।१४६। अपि प्रदत्तसर्वस्वात् कामुकात् क्षीणसम्पदः । वासोऽप्याच्छेत्तुमिच्छन्ति गच्छतः पण्ययोषितः ।।९०।। अर्थ :- कामी पुरुष द्वारा अपना सर्वस्व धन दे देने पर भी जब वह निर्धन हो जाता है तो जाते-जाते वेश्या उसके पहनने के कपड़े भी छीन लेना चाहती है ।।१०।। __व्याख्या :- किसी कामलंपट ने धनाढ्य अवस्था में अपनी सर्वस्व-संपत्ति वैश्या को लूटा दी हो, लेकिन पुण्य क्षीण होने पर उसके पास से संपत्ति नष्ट हो जाने पर उसे घर से निकाल देती है और जाते जाते पहनने के वस्त्र भी उससे जबरन छीन लेना चाहती है। इतनी कृतघ्न होती है वेश्या! कहा भी है-किसी कामांध ने अपनी धर्मपत्नी से भी अधिक वेश्या की सारसंभाल की हो, लेकिन संपत्ति क्षीण हो जाने पर वह आंख उठाकर भी नहीं देखती, बल्कि उसकी इच्छा यही होती है, कि जाते-जाते यह पुरुष उसे पहनने के कपड़े भी देता जाय ।।१०।। __वेश्यागमन के और भी दोष बताते हैं।१४७। न देवान्न गुरुन्नापि, सुहृदो न च बान्धवान् । असत्सङ्गरतिनित्यं, वेश्यावश्यो हि मन्यते ॥९१।। . अर्थ :- वेश्या का गुलाम बना हुआ कामी पुरुष न तो देवों (महापुरुषों) को मानता है, न गुरुओं को, न मित्रों . की भी मानता है और न बांधवों को, क्योंकि वह सदा बुरी सोहबत में ही आनंद मानता है। उसी में मस्त रहता है ।।११।। ।१४८। कुष्ठिनोऽपि स्मरसमान्, पश्यन्ती धनकाङ्क्षया । तन्वती कृत्रिमस्नेहं, निःस्नेहां गणिकां त्यजेत्।।९२।। अर्थ :- वेश्या एकमात्र धन की आकांक्षा से कोढ़ियों को भी कामदेव के समान देखती है और बनावटी स्नेह दिखाती है, समझदार पुरुष ऐसी निःस्नेह गणिका का दूर से ही त्याग करे ।।१२।। व्याख्या :- वेश्या की अभिलाषा सिर्फ धन प्राप्त करने की रहती है। अगर कोढ़िये भी हैं और उनके पास धन की थैली है तो उन्हें भी वह कामदेव के समान मानकर कृत्रिम हावभाव और झूठे प्रेम का स्वांग रचती है। क्योंकि ऊपर से स्नेह का नाटक किये बिना उनसे धन की प्राप्ति हो नहीं सकती। इसलिए कृत्रिम स्नेह रखने वाली स्नेह रहित गणिका का परित्याग करना चाहिए।।९२।। ___ अब परस्त्रीगमन के दोष बताते हैं।१४९। नासक्त्या सेवनीया हि स्वदारा अप्युपासकैः । आकरः सर्वपापानां किं पुनः परयोषितः ।।९३।। अर्थ :- श्रमणोपासकों को अपनी स्त्री का सेवन भी आसक्ति पूर्वक नहीं करना चाहिए, तो फिर समस्त पापों की खान पराई स्त्रियों की तो बात ही क्या है? ।।९३।। व्याख्या :- साधुधर्म को स्वीकार करने के अभिलाषी और देशविरति-धर्म के परिणामी गृहस्थ श्रमणोपासक को गृहस्थजीवन में भी प्रबल वैराग्यभावना से रहना चाहिए। अपनी पत्नी में आसक्ति नहीं रखनी चाहिए; ऐसा विधान है, तो फिर सर्वपापों की खान परस्त्रीसेवन के त्याग के बारे में तो कहना ही क्या? वह त्याग तो पहले से ही होना चाहिए।।९३।। __ परस्त्री में निहित पापों के बारे में कहते हैं।१५०। स्वपति या परित्यज्य, निस्त्रपोपपतिं भजेत् । तस्यां क्षणिकचित्तायां, विश्रम्भः कोऽन्ययोषिति? ।।९४।। | अर्थ :- जो स्त्री अपने पति को छोड़कर निर्लज्ज होकर दूसरे के साथ सहवास करती है, उस चंचल चित्त वाली स्त्री पर कौन भरोसा कर सकता है? ||९४।। व्याख्या :- श्रुति में बताया है-भर्तृदेवता हि स्त्रियः अर्थात्-स्त्रियों के लिए पति ही देवता होते हैं। परंतु जो अपने पति को देव स्वरूप न मानकर पतिभक्ति को तिलांजलि देकर बेशर्म होकर अपने यार (उपपति) के साथ बेखटके सहवास करती है, ऐसी क्षणिक चित्त वाली परस्त्री का क्या विश्वास? वह कभी भी धोखा दे सकती है ।।१४।। __ अब परनारी में आसक्त पुरुष को शिक्षा देते हैं खाना 151
SR No.002418
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherLehar Kundan Group
Publication Year
Total Pages494
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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