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विवेक रक्षा। करुणैव केलिः।
आनंद माला। एकासन गुहायाम् मुक्तासन सुख गोष्ठी।
अकल्पित भिक्षाशी।
हंसाचारः। सर्वभूतान्तर्वर्तीम् हंस इति प्रतिपादनम्।
विवेक ही उनकी रक्षा है। करुणा ही उनकी क्रीड़ा, खेल है।
आनंद उनकी माला है। गुह्य एकांत ही उनका आसन है और मुक्त आनंद ही उनकी गोष्ठी है।
अपने लिए नहीं बनाई गई भिक्षा उनका भोजन है।
हंस जैसा उनका आचार होता है। सर्व प्राणियों के भीतर रहने वाला एक आत्मा ही हंस है—इसी को वे प्रतिपादित करते हैं।