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________________ निर्वाण रहस्य अर्थात सम्यक संन्यास, ब्रह्म जैसी चर्या और सर्व देहनाश निश्चित ही, हम पूरा शास्त्र देख गए हैं, सोच-समझकर कहने जैसा है। स्वेच्छाचार संन्यास है, यह जरा सोच-समझकर कहना उससे, जो समझ सके, समझने की जिसकी तैयारी हो। नहीं तो वह समझेगा कि बिलकुल ठीक। स्वेच्छाचार का मतलब समझेगा कि लाइसेंस मिल गया। अब कुछ भी करो। और अगर कोई कुछ कहे, तो कहना, संन्यासी हैं, क्या समझते हो? स्वेच्छाचार करेंगे ही, संन्यासी जो हैं। हम देख गए हैं पूरा निर्वाण उपनिषद। जो बातें कही हैं, वे निश्चित ऐसी हैं कि ऋषि को यह वक्तव्य पीछे दे ही देना चाहिए कि उससे ही कहना, जो इतना निकट हो कि मिसअंडरस्टैंड न कर पाए, गलत न समझ जाए। उससे ही कहना, जो सीखने को इतना तैयार हो कि अपनी तरफ से जोड़े न। जो कहा जाए, वही समझे। जो चरणों में बैठकर झुक सके। जो सिर्फ प्रश्न ही न कर रहा हो, जो केवल जवाब ही न चाहता हो; जो समाधान की तलाश में निकला हो, जो समाधि पाना चाहता हो, उससे कहना। निर्वाण उपनिषद समाप्त। ऋषि कहता है, बस यह आखिरी बात कहनी थी कि जब किसी से कहो, सोच-समझकर कहना। इतना ही मुझे कहना है, ऋषि कहता है। और निर्वाण उपनिषद समाप्त हो जाता है। निर्वाण उपनिषद तो समाप्त हो जाता है, लेकिन निर्वाण निर्वाण उपनिषद के समाप्त होने से नहीं मिल जाता है। निर्वाण उपनिषद जहां समाप्त होता है, वहीं से निर्वाण की यात्रा शुरू होती है। उपनिषद समाप्त हो गया। ___ इस आशा के साथ अपनी बात पूरी करता हूं कि आप निर्वाण की यात्रा पर चलेंगे, बढ़ेंगे। और यह भरोसा रखकर मैंने ये बातें कही हैं कि आप सुनने को, समझने को तैयार होकर आए थे। अगर कोई शिष्य के भाव से न आया हो, तो उसके कारण मुझे ऋषि से क्षमा मांगनी पड़ेगी, क्योंकि फिर ऋषि के इशारे के विपरीत बात हो गई। कोई अगर मन में विवाद लेकर इन बातों को सुना और समझा हो, तो उससे मैं प्रार्थना करूंगा, वह भूल जाए कि मैंने उससे कुछ भी कहा है। ___ मैंने जैसा कहा है और जो कहा है, उसमें अगर रत्तीभर भी अपनी तरफ से जोड़ने का खयाल आए, तो स्मरण रखना कि वह अन्याय होगा-मेरे साथ ही नहीं, जिसने निर्वाण उपनिषद कहा है, उस ऋषि के साथ भी। ___ यही मानकर मैं चला हूं कि जो यहां इकट्ठे हुए हैं, वे आत्मीय हैं, एंड कम्युनिकेशन इज़ पासिबल, और संवाद हो सकता है। . इसलिए सिर्फ चर्चा नहीं रखी, साथ में आपके ध्यान के गहन प्रयोग रखे हैं। क्योंकि मैं मानता हूं कि चर्चा में वे लोग भी उत्सुक हो जाते हैं, जो शब्दों को विलास समझते हैं। चर्चा में वे लोग भी उत्सुक हो जाते हैं, जो शब्दों को मनोरंजन समझते हैं, लेकिन ध्यान में वे लोग उत्सुक नहीं होते। और दिन में तीन बार अथक श्रम करना पड़े ध्यान के लिए, तो जो चर्चा में उत्सुक थे, वे भाग गए होंगे। भाग जाएंगे। इसलिए ध्यान को अनिवार्य रूप से पीछे जोड़कर रखा था। और मैं, आप जब मुझे सुनते हैं, तब आपकी फिक्र नहीं कर रहा हूं; जब आप ध्यान करते हैं, तब आपकी फिक्र करता हूं। ___आपके ध्यान करने की चेष्टा ने मुझे भरोसा दिलाया है कि जिनसे मैंने बात कही है, वे कहने योग्य थे। 297 V
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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