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निर्वाण रहस्य अर्थात सम्यक संन्यास, ब्रह्म जैसी चर्या और सर्व देहनाश
हुआ था, अभी सिर्फ आशय था । हम शुरू करने को ही थे जरूर, लेकिन अभी शुरू नहीं हुआ था । और शुरू नहीं हुआ है, अभी अदालत के कानून के बाहर है। जज ने कहा, माना। आप बरी किए जाते हैं, आप जुआ नहीं खेल रहे थे, सिर्फ अभिप्राय, अभिप्राय पर कोई कानून नहीं लग सकता। आप जाएं।
हिंदू धर्मगुरु से पूछा, आप भी इसमें सम्मिलित थे ? हिंदू धर्मगुरु ने कहा, यह जगत माया है। जो दिखाई पड़ता है, वैसा है नहीं - इट जस्ट एपियर्स । कैसा जुआ ? कैसे पत्ते ? कौन पकड़ा गया ? किसने पकड़ा ? मजिस्ट्रेट ने कहा, मैं समझा। आप जाएं। जब जगत ही असत्य है, तो कैसा जुआ ? बिलकुल ठीक कहते हैं।
लेकिन मुल्ला बहुत मुसीबत में था, क्योंकि उसी के हाथ में पत्ते पीटते हुए पकड़े गए थे, और उसी के सामने पैसों का ढेर भी लगा था। मजिस्ट्रेट ने कहा कि इन तीनों को छोड़ देना तो आसान था, नसरुद्दीन तुम्हारे लिए क्या करें ? तुम क्या जुआ खेल रहे थे ? नसरुद्दीन ने पूछा, क्या मैं पूछ सकता हूं, विद हूम ? किसके साथ? क्योंकि वे तीनों तो जा ही चुके थे, बरी हो चुके थे। नसरुद्दीन ने कहा, अकेले भी जुआ अगर खेला जा सकता है, तो जरूर खेल रहा था ।
हमारा सारा आचरण दूसरे के संबंध में है। अकेले के आचरण का कोई अर्थ नहीं है। सत्य बोलें तो किसी से झूठ बोलें तो किसी से, चोरी करें तो किसी की, अचोर रहें तो किसी के संबंध में। हमारा सब आचरण दूसरे से संबंध है। इसलिए ऋषि ने पहले तो कहा, ब्रह्मचर्य संपदा है संन्यासी की। ब्रह्मचर्य, दूसरे के साथ ऐसा संबंधित होना, जैसे ईश्वर संबंधित होता हो ।
और दूसरी बात कही, शांति । भीतर ! आचरण तो बाहर है। भीतर, भीतर परम मौन, सन्नाटा, शांति । वहां कोई तरंग भी न उठे, वहां कोई लहर न उठे, वहां जीवन की जो ऊर्जा है, चेतना है, वह कंपित न हो। ऐसी निष्कंप मौन शांति, जहां हवा का एक झोंका भी नहीं, उसे आंतरिक संपदा कहा है। आचरण ईश्वर जैसा, अंतस निर्वाण जैसा शून्य, शांत, मौन । ऋषि कहता है, यही संपदा है, जो छीनी नहीं जा सकती। इसके अतिरिक्त जो किसी और चीज को संपदा समझकर बैठे हैं, वे अति दीन हैं, दरिद्र हैं। उनकी दरिद्रता को वे कितना ही छिपाने की कोशिश करें, वह जगह-जगह से प्रकट होती रहती है। धन उनके पास होता है, वे स्वयं धनी नहीं हो पाते, क्योंकि धन उनसे किसी भी क्षण छीना जा सकता है। और धन न भी छीना जाए, तो भी धन सिर्फ धनी होने का धोखा है। क्योंकि भीतर की दीनता तब तक नहीं मिटती, जब तक तनाव न मिट जाए। जब तक अशांति न मिट जाए, तब तक भीतर समृद्धि का जन्म नहीं होता। जब तक इतना भीतर सघन परमात्मा प्रकट न होने लगे कि चारों तरफ उसकी किरणें बिखरने लगें, तब तक व्यक्ति सम्राट नहीं है। तब तक व्यक्ति हजार-हजार रूपों में गुलाम ही होता है। संन्यासी तो सम्राट है।
स्वामी राम कहा करते थे कि एक गरीब फकीर ने घोषणा कर दी थी कि अब मैं मरने के करीब हूं। और लोग बहुत-बहुत धन मेरे पास चढ़ाते चले गए हैं, वह इकट्ठा हो गया है। मैं उसे किसी गरीब को दे देना चाहता हूं।
गांव के गरीब घोषणा सुनकर इकट्ठे हो गए। गरीबों की क्या कमी थी! जो नहीं थे गरीब, वे भी अपनी पगड़ी-वगड़ी घर रखकर हाजिर हो गए थे। फकीर तो चकित हुआ। उसमें कई लोग तो ऐसे थे,
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