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________________ निर्वाण उपनिषद है, माया होती है; तो स्वेच्छाचार पाप है, नर्क है। और जब आदमी इन सबसे मुक्त हो जाता है, तब स्वेच्छाचार ही मोक्ष है। तब कोई नियम नहीं बांधते, तब कोई नियम अनिवार्य नहीं रह जाते, तब कोई मर्यादा नहीं बचती। तब तो जो भीतर से उठता है, स्पांटेनियस, सहज, वही आचरण बन जाता है। तब स्वभाव ही आचरण है। ___ संन्यासी का उठना, बैठना, बोलना, करना सोचा-विचारा नहीं है, सहज है। जैसे हवाएं बहती हैं और पानी दौड़ता है सागर की तरफ और आग की लपटें दौड़ती हैं आकाश की तरफ, ऐसा ही स्वभाव में रहता है संन्यासी। स्वेच्छाचारी हो जाता है। पर यह स्वेच्छाचार बहुत और, अन्य है। अपराधी भी स्वेच्छाचारी होता है, संन्यासी भी स्वेच्छाचारी होता है। फर्क एक ही है कि अपराधी स्वेच्छाचारी होता है वासनाओं के साथ संन्यासी स्वेच्छाचारी होता है वासनाओं से रिक्त। वासनाओं के साथ जिसने स्वेच्छाचार किया, वह नर्क की यात्रा पर निकलेगा। वासनाओं से छूटकर जो स्वेच्छाचार में उतरा है, वह मोक्ष को उपलब्ध हो जाता है। ऋषि कहता है, स्वेच्छाचार स्वस्वभावो मोक्षः। इससे ज्यादा रेवल्यूशनरि, इससे ज्यादा क्रांतिकारी मंत्र नहीं खोजा जा सकता। इति स्मृतेः। और यही स्मृति का अंत है। बड़ी अदभुत बात है—यही। इसके आगे स्मृति की कोई भी जरूरत न रही। इसके आगे कुछ स्मरण करने योग्य न रहा। क्योंकि स्मरण रखने पड़ते हैं नियम, मर्यादाएं, सीमाएं; स्मरण रखने पड़ते हैं अनुशासन; स्मरण रखनी पड़ती हैं व्यवस्थाएं। जो स्वेच्छाचार को उपलब्ध हो गया, स्व-स्वभाव को उपलब्ध हो गया, अब स्मृति की कोई जरूरत न रही। जब तक ज्ञान नहीं, तब तक स्मृति की जरूरत है। . मेमोरी इज़ ए सब्सटीट्यूट फार नोइंग। जो जानता है, उसे स्मृति की जरूरत नहीं रह जाती। जो नहीं जानता है, उसे स्मृति की जरूरत रहती है। हमें वही याद करना पड़ता है, जिसे हम भूल-भूल जाते हैं। लेकिन जिसका हमें ज्ञान ही हो गया, उसे क्या याद रखना पड़ता है ? चोर को याद रखना पड़ता है कि चोरी करना ठीक नहीं, लेकिन जिसकी चोरी ही खो गई, क्या उसे यह याद रखना पड़ेगा कि चोरी करना पाप है? इसलिए कई दफे बड़ी मजेदार घटनाएं घट जाती हैं। कबीर के घर बहुत लोग आते थे और कबीर सबको कहते, भोजन करके जाना। कबीर का लड़का कमाल मुश्किल में पड़ गया। उसने कहा, हम कितना ऋण लें? हम थक गए, आगे नहीं चल सकता! आप यह बंद करो। कबीर कहते, अच्छा। __ कल सुबह फिर वही होता। लोग आते, कबीर कहते, भोजन के लिए रुककर जाना। कमाल सिर ठोंक लेता कि फिर वही। इति स्मृतेः। ऐसे आदमी स्मरण से नहीं जीते, तत्काल जीते हैं, वहीं जीते हैं, फिर भूल गए। आखिर कमाल एक दिन बहुत क्रोध में आ गया। उसने कहा कि अब यह आगे एक क्षण नहीं चल सकता। क्या मैं चोरी करने लगू? कबीर ने कहा, यह तूने पहले क्यों न सोचा? अदभुत घटना है यह। इतनी अदभुत घटना है कि कबीरपंथी इसका उल्लेख नहीं करते, क्योंकि 7282
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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