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________________ निर्वाण उपनिषद जरूरत नहीं है। अक्रिया उसकी प्रतिष्ठा है। क्रिया तो संन्यासी भी करेगा। चलेगा, उठेगा, बैठेगा, सोएगा, भोजन करेगा, थकेगा, विश्राम करेगा। क्रिया तो संन्यासी को भी करनी ही पड़ेगी। इस जगत में क्रिया तो अनिवार्य है। इसलिए अगर कोई सोचता हो कि अक्रिया कर लूंगा, तो संन्यासी हो जाऊंगा, तो गलती है। अक्रिया तो सिर्फ मरने से ही होती है। जीवन में क्रिया अनिवार्य है। जीवन क्रियाओं का नाम है। फिर संन्यासी क्या करेगा? गृहस्थ भी क्रिया करता है, संन्यासी भी क्रिया करता है, फिर फर्क क्या रहा? गृहस्थ भी चलता है, संन्यासी भी चलता है, फिर फर्क क्या रहा? प्रतिष्ठा का फर्क है। - चलते वक्त गृहस्थ चलने में ही प्रतिष्ठित हो जाता है, बोलते वक्त बोलने में ही प्रतिष्ठित हो जाता है, भोजन करते वक्त भोजन करने में ही प्रतिष्ठित हो जाता है। संन्यासी दूर खड़ा देखता रहता है। उसकी प्रतिष्ठा अक्रिया में बनी रहती है। ही मूव्स बट रिमेंस इन द इम्मूवेबल। वह गति करता है, लेकिन गति-मुक्त में ठहरा रहता है। चलता है, पूरी पृथ्वी घूम लेता है, और फिर भी कहता है, हम वहीं हैं, जहां थे। हम चले ही नहीं। बुद्ध के संबंध में बौद्ध भिक्षु, सिर्फ जापान के बौद्ध भिक्षु, एक मजाक करते रहते हैं कि बुद्ध कभी हुए ही नहीं। और रोज पूजा करते हैं। हिम्मतवर लोग हैं। और जब कोई धर्म हिम्मत खो देता है, तभी अपने गुरु के प्रति हंसने की हिम्मत भी खो देता है। वे कहते हैं, बुद्ध कभी हुए ही नहीं। लिंची एक बहुत बड़ा फकीर हुआ। रोज सुबह बुद्ध की मूर्ति पर फूल चढ़ाता है और रोज प्रवचन देता है कि बुद्ध कभी हुए ही नहीं। झूठ है यह बात। कहानी है यह। एक दिन एक आदमी ने कहा, यह बर्दाश्त के बाहर हो गया। रोज तुम्हें देखते हैं, फूल चढ़ाते हो। और रोज तुम्हारा प्रवचन सुनते हैं। बड़ी हैरानी होती है। बड़े कंट्राडिक्ट्री मालूम पड़ते हो, बड़े विरोधाभासी हो। आदमी कैसे हो तुम! सुबह जिसको फूल चढ़ाते हो, सांझ कहते हो, वह कभी हुआ ही नहीं। लिंची ने कहा, निश्चित ही, क्योंकि मैंने भी कभी फूल चढ़ाए नहीं। प्रतिष्ठा हमारी अक्रिया में है। वह जो फूल चढ़ाता हूं सुबह, उसमें मेरी प्रतिष्ठा नहीं है। मैं खड़ा देखता रहता हूं कि लिंची फूल चढ़ा रहा है। ऐसे ही बुद्ध भी खड़े देखते रहे कि बुद्ध पैदा हुए, कि बुद्ध चले, कि बुद्ध बोले, कि बुद्ध मरे। लेकिन प्रतिष्ठा अक्रिया में है। संन्यासी की प्रतिष्ठा अक्रिया है। ___ करते हुए न करने में ठहरा रहना संन्यास है। करते हुए न करने में ठहरा रहना संन्यास है—करने से भाग जाना नहीं। क्योंकि करने से कोई भाग नहीं सकता। एक करने को दूसरे करने से बदल सकता है, बस! और कुछ नहीं कर सकता है। तो जब करने से हम भाग ही नहीं सकते, तो एक करने को दूसरे करने से भी क्या बदलना है! इसलिए मैं गृहस्थ को भी संन्यासी बना देता हूं। प्रतिष्ठा बदल लो! काम बदलने से क्या होगा? दुकान न चलाओगे, आश्रम चलाओगे, क्या फर्क पड़ेगा? ग्राहक न आएंगे, शिष्य-शिष्याएं आएंगी, क्या फर्क पड़ेगा? वे भी कस्टमर्स हैं। - इसलिए गुरुओं में झगड़ा हो जाता है, किसी का कस्टमर किसी दूसरे के पास चला जाए, तो बड़ी झंझट होती है कि ग्राहक छीन लिया हमारा। सब धंधा हो जाता है। 7280
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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