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________________ निर्वाण उपनिषद फिर वासना पकड़ लेती है, फिर रस बन गए। फिर शरीर में हेल्यूसिनेशन के द्रव्य इकट्ठे हो गए। अब वे फिर भ्रम पैदा करवा देंगे। फिर वही मूर्छा, फिर वही मूर्छा। मूर्छा कामवासना के लिए पानी का काम करती है। इसलिए कामातुर जो व्यक्ति है, वह बहुत जल्दी शराब की तलाश में निकल जाता है। अगर ऋषियों ने शराब और नशे का विरोध किया है, तो इसलिए नहीं कि शराब अपने आप में कुछ बुरी है, बल्कि इसलिए कि वह उस आदमी की तलाश है जो अपनी कामवासना को सींचना चाहता है। जिन लोगों की कामवासना शिथिल हो गई होती है, शरीर शिथिल हो गया होता है, वे लोग शराब पी-पीकर अपनी वासना को सजग करने की चेष्टा में लगे रहते हैं। __ मूर्छा, बेहोशी, तंद्रा, कामवासना के लिए जल का काम करती है, सींचती है; तो होश, जागरण, विवेक, ध्यान, कामवासना को दग्ध करने का काम करता है। जिस क्षण आप पूरे होश में होते हैं, उस क्षण कामवासना नहीं रह सकती भीतर। जिस दिन भीतर होश की पूरी अग्नि जलती है, कामवासना जल जाती है। इसे थोड़ा और तरफ से भी देखना जरूरी है। पशुओं के जगत में बहुत से राज छिपे हैं। और आदमी अपने को समझना चाहे, तो पशुओं को समझना जरूरी है, क्योंकि आदमी के भीतर बहुत कुछ हिस्सा पशुओं का है। अफ्रीका में एक मकोड़ा होता है। जब भी नर मकोड़ा मादा मकोड़े के साथ संभोग में जाता है, इधर मकोड़ा संभोग शुरू करता है, उधर मादा उस मकोड़े के शरीर को खाना शुरू कर देती है। एक ही संभोग कर पाता है वह मकोड़ा, क्योंकि वह संभोग करता रहता है और मादा उसके शरीर को खाती चली जाती है। वैज्ञानिक जब उसके अध्ययन में थे, तब बड़े हैरान हुए कि क्या उस मकोड़े को यह भी पता नहीं चलता कि मैं मारा जा रहा हूं, खाया जा रहा हूं, नष्ट किया जा रहा हूं! मकोड़ा संभोग के बाद मुर्दा ही गिरता है। उसकी लाश को मादा खा जाती है पूरा। बस, एक ही संभोग कर पाता है। दूसरे मकोड़े यह देखते रहते हैं, लेकिन जब उनकी संभोग की वृत्ति जगती है तब वे भूल जाते हैं कि मौत में उतर रहे हैं। तो शरीर-शास्त्रियों ने उस मकोड़े का बहुत अध्ययन करके पता लगाया कि उसके शरीर में बड़ी गहरी विषाक्तता है। जब कामवासना पकड़ती है उसको, तो उसे इतना भी होश नहीं रह जाता कि मैं काटा जा रहा हूं, मारा जा रहा हूं, खाया जा रहा हूं। यह भी भूल जाता है। ___आश्चर्यजनक है। लेकिन अगर हम अपने को भी समझें, तो आश्चर्यजनक नहीं मालूम होगा। वह कीड़ा है, इससे क्या फर्क पड़ता है? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वही स्थिति मनुष्य की है। वह जानता है, भलीभांति पहचानता है। फिर वासना पकड़ लेती है, फिर वासना पकड़ लेती है। वासना के बाद अनुभव भी होता है कि व्यर्थ है, कोई अर्थ नहीं है। लेकिन उस व्यर्थता के बोध का कोई लाभ नहीं होने वाला है, क्योंकि जब तक बेहोशी न टूटे, वह फिर आ जाएगा; जिसको व्यर्थ कहा, वह फिर सार्थक हो जाएगा। ____ इसलिए ऋषि यह नहीं कहते कि उसे दबाओ। वे कहते हैं, इतने जागो, होश की इतनी अग्नि पैदा करो, द फायर आफ अवेकनिंग, कि उसमें सब दग्ध हो जाए। और जब कामवासना दग्ध हो जाती है, तो और शेष वासनाएं अपने आप दग्ध हो जाती हैं। यह कोई फ्रायड की नई खोज नहीं है कि कामवासना सब वासनाओं का केंद्र है। यह तो ऋषि सदा से जानते रहे हैं। यह जिन्होंने भी खोज की है मनुष्य की 7272
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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