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________________ निर्वाण उपनिषद हर आदमी यही सोच रहा है कि उससे अधिक दुखी कोई भी नहीं है। तो जो मिल जाए, उसे सुना देने की उत्सुकता है, तत्परता है। यह सुनना, यह बोलना, यह देखना-यह सब का सब शक्ति का अपव्यय है। तो ऋषि कहता है, मेरी वाणी में मेरा मन थिर हो जाए। और हे स्वयं प्रकाश आत्मा, मेरे सम्मुख तुम प्रकट होओ। हे स्वयं प्रकाश आत्मा मेरे सम्मुख तुम प्रकट होओ। लेकिन तभी, जब मेरी वाणी शांत हो जाए, मेरा मन मौन हो जाए। क्योंकि उससे पहले अगर परमात्मा आपके सामने प्रकट हो, तो आप पहचान न पाएंगे। और ध्यान रहे, परमात्मा चौबीस घंटे आपके सामने प्रकट है, लेकिन आप पहचान नहीं पाते हैं। वह तो पहचान आप तभी पाएंगे जब शांत, निर्मल दर्पण की तरह आप हो जाएंगे। जब मन मौन होगा और वाणी शून्य होगी, तब आप अचानक पाएंगे कि परमात्मा तो सदा से मौजूद था, मैं ही मौजूद नहीं था कि उसे देख पाऊं, पहचान पाऊं; देख पाऊं, अनुभव कर पाऊं। वह सब तरफ मौजूद था। इसलिए ऋषि कहता है, जब ऐसा हो जाए तभी तुम प्रकट होना, क्योंकि तुम अगर अभी प्रकट भी हो जाओ तो मैं अभी नहीं हूं। उस प्रकट होने का कोई अर्थ न होगा। हम सब उलटे लोग हैं। इस ऋषि से जरा अपने को तौल लेना। ___कल स्टेशन पर जब मुझे बंबई से मित्र विदा दे रहे थे। एक मित्र ने मेरे हाथ पकड़कर बहुत भाव से कहा कि हम तो बुरे हैं, हम तो बेचैन हैं, हम तो परेशान हैं, लेकिन परमात्मा खुद क्यों प्रकट नहीं हो जाता। उसको क्या तकलीफ हो रही है! माना कि हम बुरे हैं और हमसे कुछ नहीं हो सकता, लेकिन उसका क्या बिगड़ जाएगा, वह प्रकट हो जाए। हम जैसे हैं उसीके सामने प्रकट हो जाए। उन मित्र को समझाना मश्किल पडेगा कि वह प्रकट है। यह सवाल नहीं है कि वह प्रकट हो जाए। वह प्रकट है। लेकिन आप ऐसी बात कह रहे हैं कि एक अंधा आदमी या एक आदमी जो आंख बंद किए खड़ा है, वह कहता है कि मैं तो आंख बंद किए हुए हूं, वह तो ठीक है, लेकिन प्रकाश को क्या अड़चन हो रही है। प्रकाश तो प्रकट हो जाए। हम आंख बंद किए हैं, किए रहें। हमारी आंख बंद करने से प्रकाश को क्या लेना-देना है! यह प्रकाश जिद क्यों करता है कि तुम जब आंख खोलोगे तब मैं प्रकट होऊंगा! प्रकाश की कोई जिद नहीं है, प्रकाश प्रकट है। जिद आपकी है कि आप आंख बंद किए हुए हैं। और प्रकाश आपको इतना स्वतंत्र किए हुए है कि आपकी आंख को जबरदस्त अनंत प्रतीक्षा कर सकता है। परमात्मा तो प्रकट है, हम सब तरफ से बंद हैं। इसलिए ऋषि ने एकदम से नहीं कहा कि हे प्रभु, तू प्रकट हो जा। उसने पहले प्रार्थना की, मेरी वाणी, मेरा मन! और तब भी वह कह रहा है, हे स्वयं प्रकाशवान-वह परमात्मा तो प्रकाशवान है ही, वह तो स्वयं प्रकाश है ही-मेरे सम्मुख तुम प्रकट होओ। उस क्षण में, उसी क्षण में प्रकट होने का कोई अर्थ है। लेकिन वह प्रकट होना भी हमारी तरफ से है, उसकी तरफ से नहीं। हमें तब भी जब कोई आंख खोलेगा तो उसे ऐसा ही लगेगा कि प्रकाश प्रकट हुआ। उसके लिए तो हुआ ही। प्रकाश था। सिर्फ आंख बंद थी। ऋषि आगे कहता है, हे वाणी और मन! 718
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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