________________
सम्यक त्याग, निर्मल शक्ति और परम अनुशासन मुक्ति में प्रवेश
जाता है, जिनको व्यवस्थित करने के लिए व्यवस्था थी। ही ट्रांसेन्ड्स, वह अतिक्रमण कर जाता है। और वह आपसे कोई अपेक्षा नहीं करता। और जो भी उस पर घटित हो जाए, उसके अनियामकपन में जो भी परिणाम आ जाए, वह उसके लिए राजी होता है। ___ डायोजनीज नग्न घूमता था। तो पुलिस ने उसे पकड़ लिया। तो वह चला गया। वह जेलखाने में बैठ गया। सम्राट ने उसे बुलाया और कहा कि डायोजनीज, तूने कोई विरोध न किया! तो उसने कहा, कोई अपेक्षा ही न थी। विरोध तो तब हो, जब अपेक्षा हो। नग्न रहना हमारी मौज है, बंद करना तुम्हारी मौज है, हम राजी हैं। बात खतम हो गई। इसमें विरोध कैसा? अगर हम यह मानकर चलें कि हम नग्न रहेंगे और तुम बंद मत करो, तब झंझट खड़ी होगी। जब हम अपने लिए स्वतंत्र हैं, तुम भी स्वतंत्र हो। तुम नंगे आदमी को नहीं घूमने देना चाहते सड़क पर, तुमने बंद किया। हम नंगे रहना चाहते हैं, हम जेल के भीतर नंगे रहेंगे। कहीं कोई उपद्रव नहीं है, डायोजनीज ने कहा, कोई विरोध नहीं। हमारा मत बिलकुल एक है। हम दोनों का मतैक्य है। सम्राट ने कहा, इस आदमी को छोड़ दो, क्योंकि यह आदमी नियम के बाहर हो गया। इस पर नियम का कोई अर्थ ही न रहा। हम इसको सजा नहीं दे सकते। ____ मुझे खुद बचपन में व्यायाम का बहुत शौक था। तो मेरे एक शिक्षक थे। जब मैं उनकी क्लास में गया-उनके दंड देने की बात यह थी कि वे कहते थे, पच्चीस उठक-बैठक लगाओ-तो जब भी वे मुझसे कहते कि पच्चीस उठक-बैठक लगाओ, मैं सौ लगा जाता, क्योंकि मुझे उसका मजा ही था। उन्होंने मुझसे कहा कि यह नहीं चलेगा। हम कह रहे हैं पच्चीस लगाओ और तुम सौ लगा रहे हो। उनकी पक्की व्यवस्था थी उठक-बैठक लगाने की। उन्होंने मुझे एक ही दफा लगवाई, फिर नहीं लगवाई। मैंने दो-चार दफे उनसे पूछा कि यह गलती मुझसे हो गई, उठक-बैठक लगाऊं? उन्होंने कहा, छोड़ो भी, उठक-बैठक की कोई जरूरत नहीं है। क्योंकि उठक-बैठक लगवाने का मजा तभी तक है, जब तक लगाने वाला दुखी हो रहा हो। लगाने वाला प्रसन्न हो रहा है...।
फिर तो मुझे तरकीब हाथ लग गई। फिर मुझे कोई शिक्षक दंड नहीं दे पाया। एक शिक्षक थे। वे जरा कुछ गड़बड़ हो तो कमरे के बाहर कर देते थे। तो मैं कमरे के बाहर का आनंद लेने लगा। उन्होंने मुझसे कहा कि तुम्हें किस प्रकार का दंड दिया जाए! मैंने उनसे कहा, मुझे तो क्लास के बाहर, क्लास के भीतर से ज्यादा अच्छा लगता है। मजे से दंड दें।
हमारी जो व्यवस्था है, नियम है, वह तभी तक लागू है, तभी तक अर्थपूर्ण है, जब तक हम अपने लिए अलग और दूसरे के लिए अलग नियम की मांग करते चले जाते हैं। संन्यासी जो अपने लिए मानता है, वही सबके लिए मानता है। फिर अनियामक हो सकता है। फिर कोई उसे नियम बांधने की कोई जरूरत नहीं है। __इन्हीं सूत्रों की वजह से जिन लोगों ने भी पश्चिम में पहली दफे उपनिषद पढ़े, वे घबरा गए कि इससे तो सब टूट जाएगा, सब नष्ट हो जाएगा। पर उन्हें पता नहीं कि कुछ भी नष्ट नहीं होगा, क्योंकि इस सूत्र तक आने के पहले संन्यासी जो यात्रा करता है, उसमें सब रोगों से मुक्त हो जाता है। अगर हम उससे कहते हैं, कोई दवा मत पीयो, तो तभी कहते हैं जब वह बीमार ही नहीं रह जाता। हम उससे कहते हैं, दवा फेंक दो।
231
V