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ऋषि ने पहले ही सूत्र में एक बहुत अनूठी बात कही।
कहा है, त्यागियों का त्याग है भय, मोह, शोक और क्रोध ।
इसका अर्थ हुआ, भोगियों का भी कुछ त्याग होता है । भोगी जब छोड़ता है कुछ, तो धन छोड़ता है, मोह नहीं। भोगी जब छोड़ता है कुछ, तो वस्तु छोड़ता है, वृत्ति नहीं । और वस्तु के त्याग से कुछ भी नहीं होता। क्योंकि वस्तु से कोई संबंध ही नहीं है, संबंध वृत्ति से है। दो बातें खयाल में ले लें।
भीतर मोह है, इसलिए बाहर मोह का विस्तार होता है— व्यक्तियों पर, वस्तुओं पर, संबंधों में । भीतर क्रोध है, इसलिए निमित्त खोजे जाते हैं, कारण खोजे जाते हैं बाहर, जिससे क्रोध प्रकट किया जा सके।
जब कोई मुझे गाली देता है, तो लगता है ऐसा मन को कि उसने गाली दी, इसलिए मैं क्रोधित हुआ। सच्चाई उलटी है। क्रोध तो मेरे भीतर है, गाली तो सिर्फ निमित्त है उसके बाहर आ जाने का। अगर कोई मुझे गाली न दे, तो क्रोध बाहर तो नहीं आएगा, लेकिन मैं अक्रोधी नहीं हो जाऊंगा - क्रोध मेरे भीतर ही बना रहेगा।
इतना इकट्ठा करता है आदमी परिग्रह, अगर सारी वस्तुएं उससे छीन ली जाएं, वह बिलकुल दिगंबर और नग्न हो जाए - छीन ली जाएं या वह स्वयं छोड़ दे - तो भी जरूरी नहीं है कि भीतर से मोह विदा हो गया। वस्तु तो सिर्फ मोह के विस्तार की सुविधा है, अपरचुनिटी है, अवसर है। और छोटी से छोटी वस्तु भी बड़े से बड़े मोह के विस्तार के लिए सुविधा बन जाती है। ऐसा नहीं कि एक बहुत बड़ा राज्य ही चाहिए-मोह को फैलने के लिए, एक छोटी सी लंगोटी भी काफी है।
एक आदमी दो पैसे की चोरी करे कि दो लाख की, अगर दो पैसे की चोरी करेगा, तो भोगी कहेगा, छोटी सी ही तो चोरी है; दो लाख की करेगा, तो कहेगा, बहुत बड़ी चोरी है। लेकिन त्यागी कहेगा, चोरी बड़ी और छोटी नहीं होती। दो पैसा भी उतनी ही चोरी को फैलने के लिए अवसर बन जाता है, जितना दो लाख । जहां तक चोरी का संबंध है, दो पैसे या दो लाख की चोरी बराबर होती है। जहां तक पैसों का संबंध है, दो पैसे में और दो लाख में बड़ा फर्क है। लेकिन जहां तक चोरी का संबंध है, दो पैसे और दो लाख की बराबर है। और थोड़ा भीतर उतरें, तो चोरी का भाव और चोरी का कृत्य भी बराबर है। दो पैसा भी चुराना जरूरी नहीं है चोर होने के लिए, चोरी का भाव करना ही काफी है।
यहं सूत्र कहता है, त्यागियों का त्याग ... । बड़ी मजे की बात है। क्योंकि इससे साफ हो जाता है कि भोगियों का भी त्याग है कुछ। त्यागियों का त्याग है भय, मोह, शोक और क्रोध । वृत्तियों का त्याग। वह अंतर में जो छिपे हुए कारण हैं, मूल कारण, उनका त्याग। वस्तु का नहीं है सवाल, मोह का त्याग। और निश्चित ही जब मोह ही गिर जाता है, तो वस्तु से हमारा कोई सेतु, कोई संबंध नहीं रह जाता। फिर त्यागी महल के बीच में भी हो सकता है, महल उसे बांध नहीं पाता। और अगर महल के बीच रहकर त्यागी को महल बांध लेता है, तो झोपड़ा भी बांध लेगा । कोई अंतर नहीं पड़ने वाला है। झोपड़ा नहीं