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________________ साधक के लिए शून्यता, सत्य योग, अजपा गायत्री और विकार-मुक्ति का महत्व । है। एक तो यह रास्ता है। दूसरा रास्ता यह है कि इसमें से कुछ भी वह नहीं है। निर्वाण उपनिषद का ऋषि तो कहता है. वह शन्य है। और इस पर जोर देने का कारण है। और मेरा भी झकाव इस बात का है कि परमात्मा को पूर्ण न कहा जाए, शून्य ही कहा जाए। यह जानते हुए कि पूर्ण भी कहा जा सकता है, फिर भी मेरा अपना झुकाव भी यही है कि परमात्मा को शून्य ही कहा जाए। क्यों? वह मैं आपको कहूं। .. क्योंकि जैसे ही हम परमात्मा को पूर्ण कहते हैं, हमारे अहंकार को परमात्मा के साथ मिटाना मुश्किल हो जाता है। वह बढ़ता है। क्योंकि लगता है, परमात्मा को पाकर हम पूर्ण हो जाएंगे। लेकिन जब कहा जाता है, परमात्मा शून्य है, तो उसका अर्थ है कि परमात्मा को पाना हो, तो हमको मिटना पड़े और शून्य होना पड़े। इसलिए साधक की दृष्टि से परमात्मा को शून्य कहना ही उचित है। दर्शन की दृष्टि से पूर्ण भी कहा जा सकता है, लेकिन साधक की दृष्टि से पूर्ण कहना बहुत खतरनाक है। क्योंकि साधक बहुत नाजुक हालत में है। सवाल यही है कि अहंकार मिट जाए, तो वह परमात्मा को पा ले, जो पूर्ण है या शून्य है, जो भी है। लेकिन पूर्ण परमात्मा की कल्पना के साथ अपने को मिटाने का खयाल नहीं आता, बल्कि और अपने बड़े हो जाने का खयाल आता है। ऐसा लगता है कि परमात्मा को पाकर हम और भी मजबूत, और भी विराट, और भी अमृत, और भी दुख के पार; लेकिन हम बच रहेंगे। मैं बच रहूंगा। - तो हमारा अहंकार कह सकता है, अहं ब्रह्मास्मि, मैं ब्रह्म हूं। और इसलिए अक्सर ऐसा हो जाता है कि अहं ब्रह्मास्मि की घोषणा करने वाले साधु-संन्यासी अति अहंकार से पीड़ित हो जाते हैं। अहंकार उनके रोएं-रोएं पर लिख जाता है। उसका कारण है। वक्तव्य अगर परमात्मा के पूर्ण होने का स्वीकार किया जाए, तो उस पूर्ण के साथ स्वयं को जोड़ने में शून्य होना कठिन पड़ेगा। इसलिए साधक को ध्यान में रखकर ऋषि कहता है कि शन्य उसका स्वभाव है। और जब तक तम शून्य न हो जाओ, तब तक उसे न पा सकोगे। यद्यपि जो पा लेते हैं, वे उसे पूर्ण भी कह सकते हैं, कोई अंतर नहीं पड़ता। लेकिन जिन्होंने नहीं पाया है, उनकी तरफ से अगर ध्यान रखना हो, तो शून्य कहना ही उचित है। क्योंकि परमात्मा को वही बताना उचित है, जो हमें बनना हो। परमात्मा को ऐसा कोई भी संकेत देना खतरनाक है, जो हमारे मिटने में बाधा बन जाए। मिट जाना है, खाली हो जाना है, तो ही हम उससे भर पाएंगे। तो जो हमें हो जाना है, परमात्मा को वही कहना उचित है। इसलिए शून्य प्रेफरेबल है, चुनाव योग्य है। और ऋषि ने शून्य को ही चुना और कहा कि यह शून्य संकेत नहीं है, ऐसा मत मानना कि हम सिर्फ इशारा करते हैं शून्य से उस परमात्मा का, जो कि पूर्ण है। यह कहा कि वह शून्य ही है, इशारा भी नहीं करते। उसका स्वभाव शून्य है। यह स्वभाव शून्य है, यह और भी एक-दो दिशाओं से समझ लेना चाहिए। ____ असल में सारा अस्तित्व शून्य से पैदा होता है और शून्य में ही लीन होता है। एक बीज है वृक्ष का, तोड़ें और खोजें कि वृक्ष उसमें कहां छिपा है! कहीं भी न मिलेगा। पीस डालें, कहीं वृक्ष न मिलेगा। फिर भी इसी बीज से वृक्ष पैदा होता है। यही बीज टूटकर जमीन में बिखर जाता है और अंकुर निकलता है और वृक्ष बन जाता है। लेकिन बीज में खोजने से वृक्ष कहीं भी नहीं दिखाई पड़ता था। कहां से आता है यह वृक्ष? शून्य से आता है। बीज में तो सिर्फ इस वृक्ष की ब्लू-प्रिंट होती है, वृक्ष 161 17
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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