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________________ शांति पाठ का द्वार, विराट सत्य और प्रभु का आसरा और इसलिए उपनिषदों के बाद भारत में बौद्धिक विकास मुश्किल हो गया, क्योंकि विकास के लिए कुछ उपाय चाहिए। उपनिषदों में ऐसी चरम बात कह दी गई कि उसके आगे कहने जैसा नहीं रहा। सत्य की जो परम घोषणाएं हैं, वे उपनिषदों में हैं। और निर्वाण बहुत अदभुत उपनिषद है। इस पर हम यात्रा शुरू करते हैं और यह यात्रा दोहरी होगी। एक तरफ मैं आपको उपनिषद समझाता चलूंगा और दूसरी तरफ आपको उपनिषद कराता भी चलूंगा। क्योंकि समझाने से कभी कुछ समझ में नहीं आता, करने से ही कुछ समझ में आता है। करेंगे तो ही समझ पाएंगे। इस जीवन में जो भी महत्वपूर्ण है, उसका स्वाद चाहिए, अर्थ नहीं। उसका स्वाद चाहिए, उसकी व्याख्या नहीं। उसकी प्रतीति चाहिए। आग क्या है, इतने से काफी न होगा, वह आग जलानी पड़ेगी। उस आग से गुजरना पड़ेगा। उस आग में जलना पड़ेगा और बुझना पड़ेगा, तो निर्वाण की प्रतीति होगी कि निर्वाण क्या है। और कठिन नहीं है यह। __अहंकार को बनाना कठिन है, मिटाना कठिन नहीं है। क्योंकि अहंकार वस्तुतः है नहीं, मिट सकता है सरलता से। असल में जिंदगीभर बड़ी मेहनत करके हमें उसे सम्हालना पड़ता है। सब तरफ से टेक और सहारे लगाकर उसे बनाना पड़ता है। उसे गिराना तो जरा भी कठिन नहीं है। इन सात दिनों में अगर आपका अहंकार क्षणभर को भी गिर गया, तो आपको निर्वाण की प्रतीति हो सकेगी कि निर्वाण क्या है। तो हम समझेंगे। समझेंगे सिर्फ इसीलिए कि कर सकें। तो मैं जो भी कहूंगा, उसे आप अपनी जानकारी नहीं बना लेंगे, उसे आप अपनी प्रतीति बनाने की कोशिश करेंगे। जो मैं कहूंगा, उसे अनुभव में लाने की चेष्टा करेंगे। तो ही! अन्यथा पांच हजार सालों में उपनिषद की बहुत टीकाएं हुई हैं, और परिणाम तो कुछ भी हाथ नहीं। शब्द, और शब्द, और शब्द का ढेर लग जाता है। आखिर में बहुत शब्द आपके पास होते हैं, ज्ञान बिलकुल नहीं होता। और जिस दिन ज्ञान होता है, उस दिन अचानक आप पाते हैं कि भीतर सब निःशब्द हो गया, मौन हो गया। यह प्रार्थना है ऋषि की। ऋषि ने कहा है, इसे कहा है, शांति पाठ। परमात्मा से प्रार्थना करनी हो, तो कुछ और कहना चाहिए। परमात्मा के लिए शांति के पाठ का क्या अर्थ हो सकता है? परमात्मा शांत है। लेकिन इसे कहा है, शांति पाठ। जानकर कहा है, बहुत सोच-समझकर। वह इसीलिए कहा है कि प्रार्थना तो करते हैं परमात्मा से, करते अपने ही लिए हैं। और हम अशांत हैं और अशांत रहते हुए यात्रा नहीं हो सकती। अशांत रहते हुए हम जहां भी जाएंगे वह परमात्मा से विपरीत होगा। अशांति का अर्थ है, परमात्मा की तरफ पीठ करके चलना। ___असल में जितना अशांत मन, उतना परमात्मा से दूर। अशांति ही डिस्टेंस है, दूरी है। जितने आप अशांत हैं, उतना ही फासला है। अगर पूरे शांत हैं तो कोई भी फासला नहीं है, देन देअर इज नो डिस्टेंस। तब ऐसा भी कहना ठीक नहीं कि आप परमात्मा के पास हैं, क्योंकि पास होना भी एक फासला है। नहीं, तब आप परमात्मा में, परमात्मा में ही हैं। लेकिन शायद यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि परमात्मा में होना भी एक फासला है। तब कहना यही ठीक है कि आप परमात्मा हैं। या तो फिर आप हैं, और या परमात्मा है। फिर दो नहीं हैं, क्योंकि जहां तक दो हैं, वहां तक कोई न कोई तल पर फासला कायम बना रहता है।
SR No.002398
Book TitleNirvan Upnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1992
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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