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निर्वाण उपनिषद
नहीं है। लेकिन अगर 'नहीं है' कहना था, तो शून्य के प्रयोग करने की कोई जरूरत ही न थी। सीधा ही कहा जा सकता था, नहीं है। जो नहीं है, उसे नहीं है कहने में कौन सी बाधा थी? जो है, उसे चाहे प्रकट न भी किया जा सके, लेकिन जो नहीं है, उसके संबंध में तो वक्तव्य दिया ही जा सकता है।
लेकिन बुद्ध कहते हैं, वह शून्य है। है' से इनकार नहीं करते। है निश्चित ही, लेकिन शून्य है। और शून्य कहने का कारण यह है, ताकि हम अपने मन की कोई भी धारणाएं, वे जो हमारी कैटेगरीज आफ इन्टेलेक्ट हैं, हमारी बुद्धि की जो धारणाएं हैं, उन सबको छोड़कर उसकी तरफ चलना। अपने को छोड़कर चलें उसकी तरफ।
परमात्मा को शून्य कहने का अर्थ है कि केवल वे ही उसे जान पाएंगे जो शून्य होने की तत्परता दिखाएंगे। जब वे बिलकुल शून्य हो जाएंगे, तो जान पाएंगे उसे। क्योंकि तब उन दोनों का एक सा स्वभाव मिल जाएगा। एक हारमनी, एक एफीनिटी, दोनों के बीच एक संवाद शुरू हो जाएगा। शून्य है, यह कहने का यह अर्थ है कि वहां कोई शब्द नहीं, कोई ध्वनि नहीं, वहां कोई रस नहीं। इंद्रियां जो भी जानती और पहचानती हैं, उनमें से वहां कुछ भी नहीं। फिर भी वह है।
शून्य कहने का एक कारण और है। यह बहुत गहन है। पर खयाल में ले लेना जरूरी है, क्योंकि हम गहन यात्रा पर ही निकले हैं। अगर कोई परमात्मा को पूर्ण कहे, तो यह भी सोचा जा सकता है कि
और भी पूर्णतर हो सकता है। कितना ही पूर्ण हो, थोड़ा और पूर्ण होने में कौन सी असुविधा है? पूर्णतर हो सकता है। पूर्ण में और भी कुछ होने का उपाय बना रहता है। लेकिन और शून्य नहीं हो सकता। जब कोई कहता है, परमात्मा शून्य है, तो आखिरी बात आ गई। दो शून्य छोटे और बड़े नहीं हो सकते। शून्य यानी शून्य। वहां कोई है ही नहीं। ___ अगर मैं कमरे में मौजूद हूं, तो भिन्न भी हो सकता हूं। मेरी मौजूदगी भिन्न भी हो सकती है। जैसा अभी हूं, कल उससे अन्यथा भी हो सकता हूं। लेकिन कमरे में मेरी गैर-मौजूदगी है, ऐब्सेंस है, वह भिन्न नहीं हो सकती कभी भी। इट विल रिमेन द सेम। ऐब्सेंस में कैसे फर्क पड़ेगा? शून्य सदा थिर होगा। होगा तो पूर्ण भी सदा थिर, लेकिन शून्य ज्यादा तर्कयुक्त है। पूर्ण के साथ हम सोच सकते हैं और भी पूर्णताएं हैं, लेकिन शून्य के साथ और भी शून्यताएं नहीं सोची जा सकती। शून्य का अर्थ ही है कि जो बिलकुल खाली है। अब और खाली कैसे होगा! तो बुद्ध ने शून्य का प्रयोग किया है।
यह उपनिषद का ऋषि भी कहता है, शन्यं न संकेतः। .. यह कहता है कि जब हम कहते हैं, परमात्मा शून्य है, तो तुम ऐसा मत सोचना कि हम केवल संकेत करते हैं। यह बड़ी हिम्मत का वक्तव्य है। ऋषि कहता है, यह मत सोचना कि हम सिर्फ संकेत करते हैं शून्य से, और परमात्मा शून्य नहीं है। नहीं, हम कहते हैं, परमेश्वर सत्ता। शून्य ही परमेश्वर की सत्ता है।
सत्ताएं दो तरह की हो सकती हैं—पॉजिटिव, विधायक; निगेटिव, नकारात्मक। लेकिन जहां-जहां नकार होता है, वहां-वहां विधेय होता है। जैसे बिजली जल रही है, तो उसमें एक निगेटिव पोलेरिटी है, एक पॉजिटिव पोलेरिटी है। उसमें ऋण विद्युत भी है, धन विद्युत भी है। अगर दो में से एक हट जाए, तो बिजली बुझ जाए। दोनों का सर्किट, दोनों का वर्तुल चाहिए, तो बिजली जलती है। स्त्री है, पुरुष है। एक नकारात्मक है, एक विधायक है। दो में से एक हट जाए, तो जीवन की यात्रा बंद हो जाती है।
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