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शांति पाठ का द्वार, विराट सत्य और प्रभु का आसरा
. यह बहुत मजेदार बात है, सिर्फ वही मिट सकता है जो नहीं था। जो है, वह नहीं मिट सकता। वह रहेगा ही, वह रहेगा ही किसी भी रूप में, और आकार में। और कहीं भी रहेगा ही। उसके मिटने की कोई
संभावना नहीं।
___ दीए की ज्योति बुझ जाती है, मिट नहीं जाती। दीए की ज्योति खो जाती है, समाप्त नहीं हो जाती। हमारी तरफ से जो खोना है, वह किसी दूसरी तरफ कहीं मिलन बन जाता है। वह ज्योति आई थी किसी विराट से और फिर विराट में लीन हो जाती है। असीम से आती है और फिर असीम में चली जाती है। सागर से ही आती हैं वे बूंदें, जो आपके घर पर बरसती हैं और आपके खेत और बाग और बगीचे में, और फिर सागर में लीन हो जाती हैं।
यह भी ध्यान रखें, एक शाश्वत सूत्र, कि जो चीज जहां लीन होती है, वह लीन होने का स्थान वही है जो उदगम का है। उदगम और अंत सदा एक हैं। जहां से कुछ जन्म पाता है, वहीं समाप्त, वहीं लीन, वहीं विदा हो जाता है। आने का द्वार और जाने का द्वार इस जगत में एक ही है। जन्म और मृत्यु उसी द्वार के नाम हैं, वह द्वार एक ही है। ज्योति खो जाती है वहीं, जहां से आती है।
बुद्ध कहते थेः ज्योति के इस खो जाने को मैं कहता हूं दीए का निर्वाण। किसी दिन जब अहंकार भी इसी तरह खो जाता है, महाविराट में, महत में, तब उसे मैं व्यक्ति का निर्वाण कहता हूं।
इस उपनिषद का नाम है निर्वाण उपनिषद। यह भी थोड़ा सोचने जैसा है कि उपनिषद की वाणी तो बुद्ध से बहुत पुरानी है। बुद्ध ने जो कहा है वह वही है, जो उपनिषदों में छिपा है। जो गहरे उतरेगा, वह जानेगा कि बद्ध ने उपनिषदों की जीवंत व्याख्या की है।
' लेकिन कैसा आश्चर्य है कि उपनिषदों को सर्वाधिक अपने जीवन में जीने वाला आदमी ही हिंदुस्तान में ब्राह्मणों को अपना शत्रु मालूम पड़ा। उपनिषद की अमृतधारा को अपने जीवन से हजार-हजार रूपों में प्रकट करने वाला गौतम बुद्ध ही, उपनिषद के जो मालिक बने बैठे हए पंडित थे, उन्हें अपना दुश्मन मालूम पड़ा। बुद्ध के विचार को पंडितों ने भारत से हटाने की अथक चेष्टा की। और बुद्ध वही कह रहे
थे, जो उपनिषदों ने कहा है। पर ऐसा होता है। __ऐसा इसलिए होता है कि जब उपनिषद का ऋषि कुछ कहता है...ऋषि कोई पंडित नहीं है, पुरोहित नहीं है। वह कोई पुजारी नहीं है। उसने कुछ जाना है। और ज्ञान की अग्नि को सभी नहीं झेल पाते। शास्त्र की राख को सभी सम्हाल पाते हैं। ज्ञान की अग्नि को सभी नहीं झेल पाते। और जब ज्ञान बुझ जाता है और राख रह जाती है, तो शास्त्र बन जाते हैं। पंडितों के हाथ में ज्ञान नहीं होता, शास्त्र होते हैं। निश्चित ही जो आज राख है, कभी वह अंगार थी। और उस अंगार होने के कारण ही हम राख को भी सम्हाले चले जाते हैं। पर जो आज राख है, वह अंगार नहीं है, यह भी जानना जरूरी है। .
बुद्ध के समय तक उपनिषद राख हो गए थे, अंगार नहीं। असल में जब भी पंडितों के, पुरोहितों के, उनके हाथ में जो जानते नहीं, लेकिन जानने के भ्रम में होते हैं-ज्ञान पड़ता है, तो राख हो जाता है। ज्ञान की हत्या करवानी हो, तो पंडितों के हाथ में दे देने से ज्यादा सुगम और कोई उपाय नहीं। पंडित इतने कुशल हैं ज्ञान की हत्या कर देने में जिसका कोई हिसाब नहीं।
राख के आप मालिक हो सकते हैं। आग के साथ खेलना खतरनाक है। राख की आप पूजा कर
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