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निर्वाण उपनिषद
इस प्रार्थना से परमात्मा को कुछ लाभ हो जाता हो, ऐसा नहीं है। लेकिन इस प्रार्थना से हमारे पैरों में बड़ा बल आ जाता है। यह प्रार्थना परमात्मा के लिए नहीं है, अपने ही लिए है। परमात्मा के प्रति है, अपने ही लिए है। ___ अगर बूंद ठीक से प्रार्थना कर पाए सागर की, तो उसके प्राणों में कहीं सागर से संपर्क होना शुरू हो जाता है। और बूंद जब सागर को पुकारती है, तो किसी अज्ञात मार्ग से सागर होने की क्षमता और पात्रता पैदा होती है। और जब बूंद कहती है सागर से कि मुझे सहायता करना कि मैं तुझ तक पहुंच सकू, तो आधी मंजिल पूरी हो जाती है। क्योंकि जिस बूंद ने...श्रद्धा और आस्था और निष्ठा से कह सकी जो बूंद कि परमात्मा मुझे सहायता करना, यह श्रद्धा, यह निष्ठा, यह आस्था बूंद की जो संकीर्णता है उसे तोड़ देती है और जो विराटता है उससे जोड़ देती है।
प्रार्थना के क्षण में प्रार्थना करने वाला वही नहीं रह जाता, जो प्रार्थना के करने के पहले था। जैसे कोई द्वार खुल जाता है, जो बंद था। जैसे कोई झरोखा खुल जाता है, जो ढंका था। एक नया आयाम, एक नई यात्रा और एक नए आकाश का दर्शन होना शुरू हो जाता है। नहीं यह कि आप आकाश तक पहुंच जाते हैं, बल्कि अपने घर के भीतर ही खड़े होते हैं, फिर भी एक द्वार खुल जाता है और दूर अनंत आकाश दिखाई पड़ने लगता है। आप वहीं होते हैं, जहां थे। आप कुछ दूसरे नहीं हो गए होते हैं। ____अंधेरे में खड़ा है एक आदमी अपने ही मकान में और फिर अपने द्वार को खोल लेता है। वही आदमी है, वही मकान है, वही जगह है। कहीं कोई परिवर्तन नहीं हो गया है, लेकिन अब बहुत दूर का आकाश दिखाई पड़ने लगता है। और मार्ग अगर दूर तक दिखाई न पड़े तो चलना बहुत मुश्किल है। और मंजिल हम जहां खड़े हैं, अगर वहीं से दिखाई पड़नी न शुरू हो जाए तो यात्रा असंभव है।
ऋषि ऐसी प्रार्थना से शुरू करता है इस निर्वाण उपनिषद को, जिसमें निर्वाण की खोज की जाएगी-उस परम सत्य की, जहां व्यक्ति विलीन हो जाता है और सिर्फ विराट शून्य ही रह जाता है। जहां ज्योति खो जाती है अनंत में, जहां सीमाएं गिर जाती हैं असीम में, जहां मैं खो जाता हूं और प्रभु ही रह जाता है। ___ यह निर्वाण शब्द बहुत अदभुत है। बुद्ध ने तो परमात्मा शब्द भी छोड़ दिया था, आत्मा शब्द भी छोड़ दिया था। क्योंकि बुद्ध ने कहा कि ये सब शब्द बहुत ओंठों पर गुजरकर जूठे हो गए हैं। पर निर्वाण शब्द को वे भी न छोड़ पाए। और बुद्ध ने तो सारी की सारी खोज निर्वाण के सत्य पर केंद्रित कर दी। शायद निर्वाण का आपको खयाल भी न हो कि अर्थ क्या होता है। निर्वाण का अर्थ होता है, दीए का बुझ जाना। जैसे दीए को कोई फूंककर बुझा दे। कहां चली जाती है ज्योति?
इस जगत में जो भी अस्तित्व में है, वह अस्तित्व के बाहर नहीं जा सकता है। वैज्ञानिक भी अब वैसा ही कहते हैं। जो है उसे मिटाया नहीं जा सकता, और जो नहीं है उसे बनाया नहीं जा सकता। सिर्फ रूपांतरण होता है, परिवर्तन होता है। न कुछ नष्ट होता है, न कोई सृजन होता है। ___ एक दीए को फूंक मार दी और ज्योति बुझ गई-कहां चली जाती है ? मिट तो नहीं सकती है, मिटने का कोई उपाय नहीं है। चाहें तो भी मिटने का कोई उपाय नहीं है। सिर्फ वही मिट सकता है जो था ही नहीं, सिर्फ दिखाई पड़ता था। वह नहीं मिट सकता, जो था। जो है, वह नहीं मिट सकता।