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प्रश्न हैं ये
उत्तरों तक दौड़ते से प्रश्न । क्या सफर पूरा करेंगे में दम तोड़ देंगे
राह
ये अकेला छोड़ते से प्रश्न ।
प्रश्न तो यात्रा का इंगित है। प्रश्न तो समाधान और तुम्हारे बीच सेतु है। लेकिन सच्चा हो प्रश्न। और अगर सच्चा हो, तो आज नहीं कल तुम असली प्रश्न पूछोगे कि मैं कौन हूं। सारे प्रश्न उसी एक प्रश्न में जाकर निमज्जित हो जाते हैं — कि मैं कौन हूं !
और जो जान लेता है— मैं कौन हूं ! उसे सारे उत्तर मिल जाते हैं । उस एक ज्ञान से सारे उत्तर झर आते हैं।
प
जीने की कला
चौथा प्रश्न :
पंचग्र-दायक ब्राह्मण के घर भगवान बुद्ध का पधारना नदी - नाव - संयोग था या नदी सागर-संयोग ? लेकिन क्या यह सच नहीं है कि नदी सागर के पास जाती है, सागर नदी के पास नहीं आता है ?
हली बात : सदगुरु से मिलना नदी - नाव - संयोग नहीं है, नदी-सागर-संयोग है। नदी - नाव - संयोग क्षणभर का होता है। पति-पत्नी का, भाई-भाई का, मित्र-मित्र का । इस जगत के और सारे संबंध नदी - नाव - संयोग हैं; बनते, मिट जाते। जो बनकर मिट जाए, वह संबंध सांसारिक है । जो बनकर न मिटे, वह संबंध संसार का अतिक्रमण कर जाता है।
इसीलिए तो सदा से आकांक्षा रही है आदमी के मन में कि ऐसा प्रेम हो, जो कभी मिटे न । क्योंकि ऐसा प्रेम अगर हो जाए, जो कभी न मिटे, तो वही परमात्मा तक ले जाने का मार्ग बन जाएगा। और जो प्रेम मिट- मिट जाते हैं; बनते हैं मिट जाते हैं, वे प्रेम नदी - नाव - संयोग हैं।
कोई अनिवार्यता नहीं है; नदी नाव से अलग हो सकती है; नाव नदी से अलग हो सकती है। तुम नाव को खींचकर तट पर रख दे सकते हो। कोई अनिवार्यता नहीं है। लेकिन एक बार गंगा सागर में गिर गयी, फिर गंगा को खींचकर बाहर न निकाल सकोगे। फिर कोई उपाय नहीं है। फिर खोज भी न सकोगे कि गंगा कहां गयी। फिर गंगा को दुबारा बाहर निकालने की कोई संभावना नहीं है।
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