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________________ संन्यास की मंगल-वेला श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा। श्रद्धा : एक सरल भरोसा-अस्तित्व पर, स्वयं पर, जीवन पर। वीर्य : ऊर्जा। मंद-मंद नहीं जीना चाहिए। ऐसा जीना चाहिए, जैसे मशाल दोनों तरफ से जलती हो। ऊर्जा-वीर्य। स्मृतिः होशपूर्वक जीना चाहिए। एक-एक बात को स्मरणपूर्वक करना चाहिए। समाधिः समाधान चित्त की दशा। जहां कोई समस्या न रही, कोई प्रश्न न रहे; उत्तर की कोई तलाश न रही। जहां सब विचारों की तरंगें शांत हो गयीं। जहां मन न रहा। मनन न रहा, तो मन न रहा-समाधि। ____ और प्रज्ञा ः और जहां समाधि घटती है, वहीं तुम्हारे भीतर अंतःप्रज्ञा का दीया जलता है। ये पांच भावने योग्य हैं। और उल्लंघ्य-पंचक। और पांच का अतिक्रमण कर जाना है : राग, द्वेष, मोह, मान, मिथ्या-दृष्टि। ____ 'प्रज्ञाहीन मनुष्य को ध्यान नहीं होता है, ध्यान न करने वाले को प्रज्ञा नहीं होती है। जिसमें ध्यान और प्रज्ञा हैं, वही निर्वाण के समीप है।' ये दो शब्द बड़े बहुमूल्य हैं-ध्यान और प्रज्ञा। ऐसा समझो कि दीया जलाया। तो दीए का जलना तो ध्यान है। और फिर जो रोशनी दीए की चारों तरफ फैलती है, वह प्रज्ञा। ये संयुक्त हैं। इसलिए बुद्ध कहते हैं · नत्थि झानं अपञस्स...। 'प्रज्ञाहीन मनुष्य को ध्यान नहीं होता...।' क्योंकि ऐसी तुमने कोई ज्योति देखी, जिसमें प्रभा न हो? बिना प्रभा के ज्योति कैसे होगी! प्रभाहीन ज्योति नहीं होती। जहां दीया जलेगा, वहां रोशनी भी होगी। ऐसा नहीं हो सकता कि दीया जले और रोशनी न हो। इससे उलटा भी नहीं हो सकता कि रोशनी हो और दीया न जले। इसलिए बुद्ध कहते हैं नत्थि झानं अपञ्चस्स पचा नत्थि अझायतो। 'प्रज्ञाहीन मनुष्य को ध्यान नहीं और ध्यान न करने वाले को प्रज्ञा नहीं।' ध्यान और प्रज्ञा ऐसे ही जुड़े हैं, जैसे मुरगी और अंडा। बिना मुरगी के अंडा नहीं; बिना अंडे के मुरगी नहीं। इसलिए बुद्ध कहते हैं कि तुम यह मत पूछो कि पहले 33
SR No.002389
Book TitleDhammapada 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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