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एस धम्मो सनंतनो
सिकंदर जैसा आदमी भी दुखी मरता है।
और यहां कुछ लोग जरूर आनंद से जीते हैं और आनंद से विदा होते हैं। वे बुद्ध जैसे लोग हैं। वे कोई आशा ही नहीं करते। वे कहते हैं, जो हो जाए, सो ठीक है। जो न हो, बिलकुल ठीक है। उनको तुम कैसे तोड़ोगे? उन पर तुम कैसे पानी फेरोगे?
खयाल रखना, यहां तो हर एक आशाओं से भरा है-हर एक! कल मैं एक गीत पढ़ता थाः
खेत के सब्जे में बेसुध पड़ी है दुबकी एक पगडंडी की कुचली हुई अधमुई-सी लाश तेज कदमों के तले दर्द से कराहती है दो किनारों पे जवां सिट्टों के चेहरे तक कर चुप-सी रह जाती है यह सोच के बस यूं मेरी कोख कुचल देते न रहगीर अगर मेरे बेटे भी जवां हो गए होते अब तक
मेरी बेटी भी तो ब्याहने के काबिल होती। पगडंडी! मगर यह बात मुझे प्यारी लगी।
खेत के सब्जे में बेसुध पड़ी है दुबकी
एक पगडंडी की कुचली हुई अधमुई-सी लाश लेकिन पगडंडी भी ऐसी आशाएं रखती है! सभी रखते हैं।
तेज कदमों के तले दर्द से कराहती है दो किनारों पे जवां सिट्टों के चहरे तक कर चुप-सी रह जाती है यह सोच के बस
यूं मेरी कोख कुचल देते न रहगीर अगर अगर राह चलने वालों ने मेरी कोख को कुचल न डाला होता चल-चलकर!
मेरे बेटे भी जवां हो गए होते अब तक
मेरी बेटी भी तो ब्याहने के काबिल होती। सभी के भीतर हजार-हजार कामनाएं हैं, वासनाएं हैं, वे पूरी नहीं होतीं। पूरी भी हो जाएं, तो कुछ हल नहीं होता। एक पूरी होती है, तो दस पैदा हो जाती हैं। इस व्यर्थता से जागने का नाम ही संन्यास है।
और फिर जब तुम बिना आशा के जीते हो, बुद्ध ने कहा है, जब तुम निराशा के साथ जीते हो, तभी तुम पहली दफा आनंद से जीते हो।
मगर निराशा का अर्थ समझ लेना। बद्ध की निराशा का वही अर्थ नहीं, जो तुम्हारा होता है। तुम्हारा तो निराशा का अर्थ यह होता है : आशा टूट गयी। बुद्ध की निराशा का अर्थ है, आशा से मुक्ति हो गयी।
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