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________________ जागो और जीओ जाना कैसे हो? जाना तो विचार के घोड़ों पर होता है। जाना तो वासनाओं पर होता है। जाना तो तृष्णाओं के सहारे होता है। वे सब तो गए सहारे। अब मेरी कोई दौड़ नहीं, क्योंकि मेरी कोई चाह नहीं। अब मुझे कहीं जाना नहीं, कहीं पहुंचना नहीं, क्योंकि मुझे जहां पहुंचना था, वहां मैं पहुंच गया हूं। मेरा तो आना-जाना सब मिट गया। आवागमन मिट गया। तुम कहां की बातें कर रहे हो! अब तो इस जमीन पर भी मैं लौटकर आने वाला नहीं। मुझे महामंत्र मिल गया है। ब्राह्मण तो चौंके ही चौंके कि यह क्या हो गया! लेकिन भिक्षु भी चौंके, जो ज्यादा सोचने जैसी बात है। आदमी इतना राजनैतिक प्राणी है! वह यह बर्दाश्त नहीं कर सकता। धार्मिक आदमी भी, भिक्षु भी ईर्ष्या से भर गए होंगे कि यह अभी-अभी तो आया चंदाभ; और अभी-अभी ज्ञान को उपलब्ध हो गया! और हम इतने दिन से बैठे हैं! हम कपास ही ओंट रहे हैं। और यह आए देर नहीं हुई; अभी नया-नया सिक्खड़, सिद्ध होने का दावा कर रहा है! उन्होंने जाकर बुद्ध को कहा कि भंते! चंदाभ भिक्षु अर्हत्व होने का दावा कर रहा है। और इस तरह झूठ बोल रहा है। आप उसे चेताइए। लेकिन बुद्ध ने चंदाभ को नहीं चेताया। चेताया उन भिक्षुओं को, कि भिक्षुओ! तुम चेतो। तुम ईर्ष्या से भरे हो। तुम देख नहीं रहे हो जो घट रहा है। तुम अहंकार से भरे हो। मेरे पुत्र की तृष्णा क्षीण हो गयी है। और वह जो कर रहा है, पूर्णतः सत्य है। वह जो कह रहा है, पूर्णतः सत्य है। वह ब्राह्मणत्व को उपलब्ध हो गया है। ____ 'जो चंद्रमा की भांति विमल, शुद्ध, स्वच्छ और निर्मल है तथा जिसकी सभी जन्मों की तृष्णा नष्ट हो गयी, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।' __और चंदाभ ब्राह्मण हो गया है भिक्षुओ। वह ठीक चंद्रमा की भांति अब हुआ। तब तो नाम ही था। तब जो जरा सी ज्योति थी उसकी नाभि में। अब ज्योति सब तरफ फैल गयी। अब वह ज्योति स्वरूप हो गया। अब चंदाभ चंद्रमा ही हो गया है। तुम फिर से देखो भिक्षुओ! उसमें तृष्णा नहीं बची। उसमें मांग नहीं रही। उसकी वासना भस्मीभूत हो गयी है। वह ब्राह्मण हो गया है। 'जो मानुषी बंधनों को छोड़ दिव्य बंधनों को भी छोड़ चुका है...।' उसने मनुष्यों से ही बंधन नहीं छोड़ दिए हैं, उसने दिव्यता से भी बंधन छोड़ दिए हैं। आया था मंत्र मांगने, अब वह कुछ भी नहीं मांगता; मोक्ष भी नहीं मांगता है। 'सभी बंधनों से जो विमुक्त है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।' 'जो पूर्व-जन्म को जानता है...।' और अब उसे याद आ गयी है कि वह जो आभा उसकी नाभि में थी क्यों थी। उसे याद आ गयी, कश्यप महाबुद्ध के चैत्य में चंदन लगाया था आनंद से। उतनी सी छोटी बात भी इतना फल लायी थी। उसे याद आ गए हैं अपने सब पिछले जीवन के रास्ते। और चूंकि उनकी याद आ गयी है, इसलिए अब उसके आगे के 295
SR No.002389
Book TitleDhammapada 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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