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________________ जागो और जीओ इसलिए रूपांतरण के लिए समग्र रूप से दांव लगाने की क्षमता और साहस चाहिए। लोग दुकानदार हैं। और परम सत्य को पाने के लिए जुआरी चाहिए, जो सब दांव पर लगा दे। दुकानदार दो-दो पैसे का हिसाब लगाकर दांव पर लगाता है कि कितना लाभ होगा? अगर लाभ नहीं होगा, तो हानि कितनी होगी? अभी इतना लगाऊं। पहले देखू थोड़ा लगाकर। फिर लाभ हो, तो थोड़ा और ज्यादा लगाऊंगा। फिर लाभ हो, तो थोड़ा और ज्यादा लगाऊंगा! जुआरी सब इकट्ठा लगा देता है। या इस पार या उस पार। और जिसने भी सब इकट्ठा लगा दिया ध्यान में, वह उस पार ही होता है; इस पार का उपाय ही नहीं। उसके सब लगाने में ही उस पार हो गया। वह सब लगाने की जो वृत्ति थी, उसी में उस पार हो गया। अब कोई और दूसरी बात नहीं बची। __ सात वर्ष की समग्र साधना; रेवत अर्हत्व को उपलब्ध हो गया। उसने जान लिया अपने आत्यंतिक स्वरूप को, अपने भीतर छिपी पड़ी भगवत्ता को। उसने अपने को पहचान लिया। वह अपने आमने-सामने खड़ा हो गया। वह आह्लादित हो गया। आनंदित हो गया। वह मुक्त हो गया। उसने अभी तक भगवान का दर्शन नहीं किया था। पहले सोचता था ः पात्र हो जाऊं, तब करूंगा। और अब, अब यह बात ही व्यर्थ मालूम पड़ने लगी कि भगवान की देह को देखने जाऊं। अब तो भगवान का अंतरतम देख लिया। वही तो बुद्ध ने कहा है : जो धर्म को जानता है, वह मुझे जानता है। जिसने धर्म देखा, उसने मुझे देखा। जो मुझे ही देखता रहा और मेरे भीतर के धर्म से वंचित रहा, उसने मुझे देखा ही नहीं। वह तो अंधा था। क्योंकि मैं देह नहीं हूं। देह के पार जब तुम देखने लगोगे, तभी बुद्धों से संबंध होता है; संबंध जुड़ता है। वह संग आत्मा का है, देह का नहीं। तो पहले तो सोचा था-ठीक ही सोचा था, रेवत बड़ा प्रज्ञावान है-ठीक ही सोचा कि पहले पात्र तो हो जाऊं। उन भगवान की आंख मेरे ऊपर पड़े, इस योग्य तो हो जाऊं। उनके चरण छुऊं, इस योग्य हाथ तो हो जाएं। कुछ हो तो मेरे पास चढ़ाने को। ऐसे खाली-खाली क्या जाना! कुछ लेकर जाऊं; कुछ ध्यान की संपदा लेकर जाऊं। कुछ उनके पैरों में रखने की मेरे पास सुविधा हो। कुछ कमाकर जाऊं। ठीक सोचा था। काश! ऐसे लोग अधिक हों दुनिया में, तो दुनिया का रूप बदले। अक्सर तो ऐसा होता है कि अपात्र भी बुद्धों के पास पहुंच जाते हैं और पहुंच कर ही सोचते हैं कि सब हो गया। फिर वे बुद्धों को ही दोष देने लगते हैं कि आपके पास आए इतने दिन हो गए, अभी तक कुछ हुआ क्यों नहीं? फिर वे बुद्धों पर शक करने लगते हैं कि जब इतने दिन हो गए और कुछ नहीं हुआ, तो मालूम होता है ये बुद्ध सच्चे नहीं हैं। जैसे बुद्धों के ऊपर ही सब है! कुछ तुम भी करोगे? तुम्हारे भीतर घटनी है बात, और तुम्हारे भीतर कुछ भी 285
SR No.002389
Book TitleDhammapada 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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