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________________ समग्र संस्कृति का सृजन सब ब्राह्मण, मगर थे सब क्षत्रिय। क्योंकि ब्राह्मण होने के पहले क्षत्रिय होना जरूरी है। जिसने जन्म के साथ अपने को ब्राह्मण समझ लिया, वह चूक गया। उसे पता ही नहीं चलेगा कि बात क्या है! और जो जन्म से ही अपने को ब्राह्मण समझ लिया और सोच लिया कि पहुंच गया, क्योंकि जन्म उसका ब्राह्मण घर में हुआ है, उसे संकल्प की यात्रा करने का अवसर ही नहीं मिला, चुनौती नहीं मिली। इस देश के महाज्ञानी क्षत्रिय थे। हिंदुओं के अवतार, जैनों के तीर्थंकर, बौद्धों के बुद्ध-सब क्षत्रिय थे। इसके पीछे कुछ कारण है। सिर्फ एक परशुराम को छोड़कर, कोई ब्राह्मण अवतार नहीं है। और परशुराम बिलकुल ब्राह्मण नहीं हैं। उनसे ज्यादा क्षत्रिय आदमी कहां खोजोगे! उन्होंने क्षत्रियों से खाली कर दिया पृथ्वी को कई दफे काट-काटकर। वे काम ही जिंदगीभर काटने का करते रहे। उनका नाम ही परशुराम पड़ गया, क्योंकि वे फरसा लिए घूमते रहे। हत्या करने के लिए परशु लेकर घूमते रहे। परशु वाले राम-ऐसा उनका नाम है। ___ वे क्षत्रिय ही थे। उनको भी ब्राह्मण कहना बिलकुल ठीक नहीं है, जरा भी ठीक नहीं है। उनसे बड़ा क्षत्रिय खोजना मुश्किल है! जिसने सारे क्षत्रियों को पृथ्वी से कई दफे मार डाला और हटा दिया, अब उससे बड़ा क्षत्रिय और कौन होगा? संकल्प यानी क्षत्रिय। ऐसा समझो कि भोग यानी शूद्र। तृष्णा यानी वैश्य। संकल्प यानी क्षत्रिय। और जब संकल्प पूरा हो जाए, तभी समर्पण की संभावना है। तब समर्पण यानी ब्राह्मण। जब तुम अपना सब कर लो, तभी तुम झुकोगे। उसी झुकने में असलियत होगी। जब तक तुम्हें लगता है : मेरे किए हो जाएगा, तब तक तुम झुक नहीं सकते। तुम्हारा झुकना धोखे का होगा; झूठा होगा; मिथ्या होगा। ___ अपना सारा दौड़ना दौड़ लिए, अपना करना सब कर लिए और पाया कि नहीं, अंतिम चीज हाथ नहीं आती, नहीं आती, नहीं आती; चूकती चली जाती है। तब एक असहाय अवस्था में आदमी गिर पड़ता है। जब तुम घुटने टेककर प्रार्थना करते हो, तब असली प्रार्थना नहीं है। जब एक दिन ऐसा आता है कि तुम अचानक पाते हो कि घुटने टिके जा रहे हैं पृथ्वी पर। अपने टिका रहे हो-ऐसा नहीं; झुक रहे हो—ऐसा नहीं; झुके जा रहे हो। अब कोई और उपाय नहीं रहा। जिस दिन झुकना सहज फलित होता है, उस दिन समर्पण। समर्पण यानी ब्राह्मण। समर्पण यानी ब्रह्म। जो मिटा, उसने ब्रह्म को जाना। ये चारों पर्ते तुम्हारे भीतर हैं। यह तुम्हारे ऊपर है कि तुम किस पर ध्यान देते हो। ऐसा ही समझो कि जैसे तुम्हारे रेडियो में चार स्टेशन हैं। तुम कहां अपने रेडियो की कुंजी को लगा देते हो; किस स्टेशन पर रेडियो के कांटे को ठहरा देते हो, यह तुम पर निर्भर है। 189
SR No.002389
Book TitleDhammapada 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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