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________________ एस धम्मो सनंतनो बेईमानी और धूर्तता के कुछ भी नहीं होता । लेकिन विश्वविद्यालय सिखाते यही हैं । तुमने जो शिक्षा विकसित की है, वह धूर्तता की है। निर्विचार की तो वहां कोई शिक्षा ही नहीं है। कोई विश्वविद्यालय ध्यान की क्षमता नहीं देता, निर्मलता नहीं देता, सरलता नहीं देता । चालबाजी सिखाता है। गणित सिखाता है। तर्क सिखाता है। कैसे लूट लो दूसरों से ज्यादा, यह सिखाता है। बिना कुछ किए कैसे संपत्ति मिल जाए, यह सिखाता है ! सिखाते तुम यह हो और फिर जो सिखाने वाले हैं, वे भी परेशान हैं। जब उनके विद्यार्थी उन्हीं को धोखा देने लगते हैं, उन्हीं की जेब काटने लगते हैं, तो वे कहते . हैं : यह मामला क्या है? गुरु के प्रति कोई श्रद्धा नहीं है ! लेकिन तुम इनको सिखा क्या रहे हो ? श्रद्धा तुमने कभी इनको सिखायी ? तुमने . सिखाया तर्क, संदेह; और जब ये तुम पर ही तर्क करते हैं और तुम्हारे साथ ही संदेह करते हैं, और तुम्हारे साथ ही चालबाजियां...। अभ्यास कहां करेंगे? यह होमवर्क है! फिर दुनिया में जाएंगे, फिर वहां असली काम करना पड़ेगा ! ये तैयारी कर रहे हैं। यह जो विश्वविद्यालयों में इतनी रुग्णता दिखायी पड़ती है— हड़ताल, घिराव - - इस सबके लिए जिम्मेवार शिक्षा है; विद्यार्थी नहीं । तुम्हारी शिक्षा इसी के लिए है। तुम्हारी शिक्षा हिंसा सिखाती है और चालबाजी सिखाती है। और जब कोई आदमी चालबाज हो जाता है, हिंसक हो जाता है, तो उसका अभ्यास करना चाहता है— स्वभावतः । कहां अभ्यास करे ? विश्वविद्यालय में ही अभ्यास करेगा। - तुम्हारे विश्वविद्यालय राजनीति सिखाते हैं | अभ्यास कहां करे? फिर वहीं चुनाव लड़ना सीखता है। विद्यार्थी यूनियन का चुनाव — और तुम देखोगे, जैसे कि पार्लियामेंट का चुनाव हो रहा है ! वह अभ्यास कर रहा है। वह छिछले पानी में तैरना सीख रहा है। फिर कल वह पार्लियामेंट में भी जाएगा। और पार्लियामेंट में भी वही होता है । जरा बड़े पैमाने पर । वही मूढ़ता। वही धूर्तता । वही गुंडागर्दी । कोई फर्क नहीं ! इसके पीछे कारण है। ध्यान न हो, तो निर्मलता नहीं होती। बुद्ध ने कहा : ध्यानी, निर्मल, आसनबद्ध... । जब भीतर निर्मलता होती है, तो शरीर के व्यर्थ हलन चलन अपने आप विलीन हो जाते हैं। शरीर में एक तरह की थिरता आ जाती है । एक तरह की शांति आ जाती है। कृतकृत्य ... और स्वभावतः फूल जब ध्यान के खिलते हैं, तभी पता लगता है कि मिल गया, जो मिलना था; पा लिया, जो पाना था । पाने योग्य पा लिया। अब कुछ और पाने योग्य नहीं है। आखिरी संपदा मिल गयी । कृतकृत्य । आस्रवरहित... और जो ध्यान को उपलब्ध हो गया, उसके भीतर व्यर्थ चीजें नहीं आ सकतीं। ध्यान उसका रक्षक हो जाता है । जो ध्यान को उपलब्ध हो गया, 166
SR No.002389
Book TitleDhammapada 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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