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बुद्धत्व का आलोक
से नहीं होता। 'जब ब्राह्मण दो धर्मों में पारंगत हो जाता है...।' कौन से दो धर्म? एक धर्म है, समथ। और दूसरा धर्म है, विपस्सना। 'तब उस जानकार के सभी संयोग-बंधन-अस्त हो जाते हैं।' इन दोनों शब्दों को समझ लेना जरूरी है।
बुद्ध ने दो तरह की समाधि कही है: समथ समाधि और विपस्सना समाधि। समथ समाधि का अर्थ होता है : लौकिक समाधि। और विपस्सना समाधि का अर्थ होता है : अलौकिक समाधि। समथ समाधि का अर्थ होता है : संकल्प से पायी गयी समाधि—योग से, विधि से, विधान से, चेष्टा से, यत्न से। और विपस्सना का अर्थ होता है: सहज समाधि। चेष्टा से नहीं, यत्न से नहीं, योग से नहीं, विधि से नहीं-बोध से, सिर्फ समझ से। विपस्सना शब्द का अर्थ होता है : अंतर्दृष्टि।
फर्क समझना। तुमने सुना कि क्रोध बुरा है। तो तुमने क्रोध को रोक लिया। अब तुम क्रोध नहीं करते हो। तो तुम्हारे चेहरे पर एक तरह की शांति आ जाएगी। लेकिन चेहरे पर ही। भीतर तो क्रोध कहीं पड़ा ही रहेगा। क्योंकि तुमने दबा दिया है सुनकर। अगर तुम्हारी समझ में आ गया कि क्रोध गलत है-शास्त्र कहते हैं, इसलिए नहीं; बुद्ध कहते हैं, इसलिए नहीं; मैं कहता हूं, इसलिए नहीं-तुमने जाना अपने जीवंत अनुभव से, बार-बार क्रोध करके कि क्रोध व्यर्थ है। यह प्रतीति तुम्हारी गहन हो गयी; इतनी गहन हो गयी कि इस प्रतीति के कारण ही क्रोध असंभव हो गया; तुम्हें दबाना न पड़ा। तुम्हें विधि-विधान न करना पड़ा। तुम्हें अनुशासन आरोपित न करना पड़ा। तो दूसरी दशा घटेगी। तब तुम्हारे भीतर भी शांति होगी, बाहर भी शांति होगी।
समथ समाधि में बाहर से तो सब हो जाता है, भीतर कुछ चूक जाता है। विपस्सना समाधि पूरी समाधि है। बाहर भीतर एक जैसा होता है; एकरस हो जाता
' जैसे एक आदमी योगासन साधकर बैठ गया। अगर वर्षों अभ्यास कर लोगे, तो कसरत की तरह योगासन सध जाएगा। योगासन तो साधकर बैठ गए बिलकुल पत्थर की मूर्ति की तरह। हिलते ही नहीं! चींटी चढ़ती है; पता उसका लेते ही नहीं। मच्छड़ काटता है; फिक्र नहीं है। बैठे, तो बैठे। घंटों बैठे हैं! लेकिन भीतर मन चल
___ अभ्यास कर लिया। अब मच्छड़ का भी अगर रोज-रोज अभ्यास करोगे...। काटने दो-काटने दो-काटने दो। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे तुम्हारी चमड़ी संवेदना खो देगी। चींटी चढ़ती रहेगी, काटती रहेगी, तुम्हें पता नहीं चलेगा। चमड़ी कठोर हो गयी अभ्यास से। बाहर से तो तुम मूर्ति बन गए, लेकिन भीतर? भीतर बाजार भरा है।
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