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बुद्धत्व का आलोक
यदा द्वयेसु धम्मेसु पारगू होति ब्राह्मणो। अथस्स सब्बे संयोगा अत्थं गच्छंति जानतो।।
'जब ब्राह्मण दो धर्मों-समथ और विपस्सना–में पारंगत हो जाता है, तब उस जानकार के सभी संयोग-बंधन-अस्त हो जाते हैं।'
.. यस्स पारं अपारं वा पारापारं न विज्जति।
वीतद्दरं विसछ्त्तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ।।
'जिसके पार, अपार और पारापार नहीं है, जो वीतभय और असंग है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।'
झायिं विरजमासीनं कतकिच्चं अनासवं । उत्तमत्थं अनुप्पत्तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मण ।।
'जो ध्यानी, निर्मल, आसनबद्ध, कृतकृत्य, आस्रवरहित है, जिसने उत्तमार्थ को पा लिया है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।'
पहले दृश्य को समझें। वक्कलि ब्राह्मण-कुल में उत्पन्न हुए थे।
ब्राह्मण-कुल में उत्पन्न होने से कोई ब्राह्मण नहीं होता है। पैदा तो सभी शूद्र होते हैं। ब्राह्मण बनना होता है।
शूद्र की परिभाषा क्या है? शूद्र की परिभाषा है : जिसको शरीर से ज्यादा कुछ दिखायी न पड़े। जो शरीर में जीए; शरीर के लिए जीए। शरीर से अन्यथा जिसकी समझ में न पड़े। जिसकी आंखें पृथ्वी में उलझी रह जाएं; आकाश जिसे दिखायी न पड़े। जो आकृति में बंध जाए, और आकृति के भीतर जो अनाकृत विराजमान है, उसे दिखायी न पड़े। ऐसे अंधे को शूद्र कहते हैं।
सभी अंधे पैदा होते हैं। सभी शूद्र पैदा होते हैं। ब्राह्मण तो कोई पराक्रम से बनता है। ब्राह्मण उपलब्धि है। ब्राह्मण गुणवत्ता है, जो अर्जित करनी होती है। मुफ्त नहीं होता कोई ब्राह्मण। जन्म से हो जाओ, तो मुफ्त हो गए। जन्म से हो जाओ, तो संयोग से हो गए। जन्म से हो जाओ, तो तुम्हारी कौन सी उपलब्धि है?
और ब्राह्मण का अर्थ यह भी नहीं होता कि जो शास्त्रों को जानता हो। क्योंकि शास्त्रों को तो शूद्र भी जान ले सकता है। इसी डर से कि कहीं शूद्र शास्त्रों को न जान ले, सदियों तक शूद्र को शास्त्र पढ़ने से रोका गया। नहीं तो फिर ब्राह्मण और शूद्र में भेद क्या करोगे? भेद कुछ है भी नहीं। उतना ही भेद है कि ब्राह्मण शास्त्र
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