SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राजनीति और धर्म थी। इन मित्र ने मुझ पर बड़ी दया की। दो साल से ये सब तरह से मेरी सेवा कर रहे हैं। इनके ही सहारे जी रही हूं। अब मैं इसीलिए आयी हूं कि मुझे दुख के बाहर करें। ___ मैंने कहा : मैं दुख के बाहर तो कर दूं। लेकिन ये मित्र चले जाएंगे। उसने कहा : क्यों? और मैंने कहा: तु भी जानती है। अब तू कभी ठीक हो नहीं सकती। क्योंकि अब इन मित्र को रोकने का एक ही उपाय है कि इनको दया करने की सुविधा रहे। तेरा इसमें न्यस्त स्वार्थ है। अब तो तेरा इसमें बड़ा भारी स्वार्थ लग गया। अब अगर तू स्वस्थ हो जाए, ठीक हो जाए, तो ये मित्र गए! फिर ये करेंगे क्या? इनका काम ही खतम हो गया! इनको स्त्री से थोड़े ही मतलब है। स्त्रियां तो बहुत थीं दुनिया में। इनको मतलब है दया करने से। और मित्र बैठे थे बिलकुल अकड़े हुए। उन्होंने दया की है! स्वभावतः। दो साल से इसकी सेवा कर रहे हैं! वे चाहते थे, मैं भी सर्टिफिकेट दूंगा। मेरी बात सुनकर तो उनकी हालत खराब हो गयी। मगर बात ऐसी ही है। तुमने दया मांगी, तो गलत बात मांगी। - ध्यान रखना : दया मांगनी पड़ती है; प्रेम दिया जाता है। और जो मांगता है, वह गलत है। वह शुरू से ही गलत हो गया। तुम्हारी भूल वहां हो गयी कि तुमने प्रेम मांगा। वह दया है। तुमने भिखारी की तरह हाथ फैलाए। और प्रेम उन्हीं के पास आता है, जो सम्राट होते हैं। तुम्हें देना था प्रेम। और मजा यह है कि मांगो, तो दूसरा दे तो उस पर निर्भर है। देना हो, तो देने में तुम मालिक हो। कोई तुम्हें रोक नहीं सकता। मैं सारी दुनिया को प्रेम दे सकता हूं; कोई मुझे रोक नहीं सकता। कैसे रोकेगा कोई मुझे? प्रेम एक भावदशा है, जो मैं लुटाता चल सकता हूं, राह पर लुटाता चल सकता हूं। जो राह पर आए, उसी को प्रेम से देख सकता हूं। जो करीब आए, उसी को प्रेम दे सकता हूं। जो नहीं है पास, जो दूर है, उसकी तरफ भी मेरे प्रेम की तरंगें उठकर जा सकती हैं। प्रेम मांगता ही नहीं। प्रेम तो दान है। तुमने भूल वहीं कर दी; तुमने प्रेम मांगा। और स्त्री समझदार थीं, जो तुमसे हट गयी। तुम गलत आदमी थे। तुम्हारा चित्त ही रुग्ण था। अब तुम कहते हो : 'मेरी वीणा टूट गयी! अब मैं प्रभु को कैसे चढ़ाऊं?' अब यह तुम्हारी टूटी वीणा और कोई स्वीकार भी कैसे करेगा? अब प्रभु ही कर लें, तो बहुत! और मैं तुमसे कहता हूं, वे कर लेंगे। उनकी दुकान तो कबाड़ी की दुकान है। वहां तो सब टूटे-फूटे सामान, सब लिए चले आते हैं लोग। वे ले लेते हैं। और वे वीणाओं को सुधारने में कुशल हैं। और वे मिट्टी को भी छूते हैं, तो सोना हो जाती है। ___ तुम अब संकोच न करो। अब टूटी-फूटी वीणा है, कम से कम इसको ही दे दो। और मैं तुमसे कहता हूं : उनके छूते ही इस वीणा से अपूर्व संगीत उठेगा। 131
SR No.002389
Book TitleDhammapada 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy