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________________ राजनीति और धर्म मैंने सुना है : नयी दुल्हन के हाथ का खाना पति ने पहली बार खाया। मिर्चे बहुत ज्यादा थीं। फिर भी वह बात नहीं बिगाड़ना चाहता था। कौन बिगाड़ना चाहता है? सुधारते-सुधारते बिगड़ जाती है, यह और बात है; मगर बिगाड़ना कोई नहीं चाहता। बिगड़ सबकी जाती है; मगर बिगाड़ना कोई भी नहीं चाहता। तो उस पति ने कहाः बहुत अच्छा खाना बनाया है। पत्नी ने कहाः लेकिन आप रो क्यों रहे हैं? पति ने कहाः खुशी के कारण! पत्नी ने कहाः और दं? तो पति ने कहाः नहीं; मैं ज्यादा खुशी बर्दाश्त न कर सकूँगा। भुक्त-भोगियों से पूछो। रो रहे हैं। और कह रहे हैं, बड़े खुश हैं। उनकी बातों पर मत जाना। उनकी आंखों को देखना। क्या कह रहे हैं, इसमें तो पड़ना ही मत, क्योंकि वह तो सब शिष्टाचार है, जो कह रहे हैं। उनकी हालत देखना। सबरंग उड़ गया है। सब सपने टूट गए हैं। रस्सी तो कब की जल गयी है; राख रह गयी है। जरा गौर से देखना। हालांकि वे कहेंगे यही कि हां, हम बड़े खुश हैं। मगर ऐसी मुर्दगी से कहेंगे कि हम बड़े खुश हैं कि आदमी जब कहता है कि हम बड़े दुखी हैं, तब भी कुछ जान रहती है उसमें। इनकी खुशी में उतनी भी जान नहीं है! जब कोई कहे, हम बड़े खुश हैं; तो पूछनाः फिर रो क्यों रहे हैं? आदमी की बड़ी अदभुत दशा है! अदभुत इसलिए कि जो तुम चाहते हो, न मिले तो तुम तड़फते हो। क्योंकि तुम सोचते होः मिल जाता, तो स्वर्ग मिल जाता। और मिल जाए, तो तुम तड़फते हो—कि अरे! मिल गया और कुछ न मिला। और इस संसार में मिलने को कुछ है ही नहीं। इस संसार में सभी हारते हैं। जो हारते हैं, वे तो हारते ही हैं; जो जीतते हैं, वे भी हारते हैं। यहां हार भाग्य है। यहां जीत होती ही नहीं; जीत बदी ही नहीं; किसी की किस्मत में नहीं है। . इस प्रतीति को जानकर ही तो आदमी अपने भीतर उतरना शुरू होता है कि यहां बाहर तो हार ही हार है। ___ अब कब तक तुम यह रोना लिए बैठे रहोगे कि किसी को प्रेम किया था। सब दे देना चाहता था!... भगवान का धन्यवाद दो कि बच गया। सब दे देते, तो बहुत पछताते। वही तो हालत कई की हो गयी है। सब देकर बैठे हैं अब! अब भागने का भी रास्ता नहीं मिलता! और तुम कहते हो ः 'लेकिन यह नहीं हुआ, क्योंकि मेरा प्रेम ही स्वीकार नहीं हुआ।' तुम धन्यभागी हो। तुम झंझट से बच गए। उस स्त्री ने तुम पर बड़ी दया की। 129
SR No.002389
Book TitleDhammapada 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1991
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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