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राजनीति और धर्म
कल रोशनी हाथ लग जाएगी। क्योंकि अंधेरा और रोशनी दो नहीं हैं। अंधेरे से ही जब ठीक से पहचान हो जाती है, तो रोशनी बन जाती है। अंधेरा रोशनी ही है, जिससे हम अपरिचित हैं।
तुमने देखा न, कभी-कभी तीव्र रोशनी भी अंधेरा मालूम होती है। सूरज की तरफ देखा कभी क्षणभर को? और फिर चारों तरफ देखो। सब अंधेरा हो जाता है।
भीतर भी इतनी विराट रोशनी है, इसलिए अंधेरा मालूम होता है। आंखें चुंधिया जाती हैं। और तुमने यह रोशनी कई जन्मों से नहीं देखी है। इसलिए जब पहली दफा यह रोशनी आंख पर पड़ती है, एकदम अंधेरा छा जाता है।
घबड़ाओ मत। तुम्हारे हाथ में, जिसकी तुम खोज कर रहे हो, उसका पल्लू आ ही गया। यही तो चाहिए; अंधेरा दिखने लगा। अब टटोलो। 'तेरो तेरे पास है, अपने माहिं टटोल। राई घटै न तिल बढ़े...।'
तुम्हारे भीतर जो है, वह न तो राईभर घटता है, न राईभर बढ़ता है। वह तो जैसा है वैसा है। जैसा का तैसा जस का तस। जब तुम आए थे पृथ्वी पर, तब भी इतना ही था, जितना अब है; और जब तुम जाओगे पृथ्वी से, तब भी उतना ही होगा, जितना अब है। जितना तब था-जन्म के समय।
इस संसार के अंधकार में भटके हुए लोगों के पास भी उतना ही है, जितना बुद्धों के पास।
'राई घटै न तिल बढ़े...।'
परमात्मा के संबंध में हम सब समान अधिकारी हैं। लेकिन कुछ हैं, जिन्होंने अपने अधिकार को पहचान लिया और परम आनंद में विराजमान हो गए। और कुछ हैं, जिन्होंने अपने अधिकार को नहीं पहचाना; भिखमंगे बने भीख मांग रहे हैं।
यह प्यारा वचन है : 'राई घटै न तिल बढ़े...।'
न कुछ घटता, न बढ़ता। न कुछ पाना है, न कुछ खोना है। जो है, जैसा है, वैसा ही जान लेना है।
'हरि बोलौ हरि बोल।'
इसकी पहचान हो जाए, तो ही हरि-भजन। यह जो राई न घटता न बढ़ता, यह जो तुम्हारे भीतर बैठा है, जो टटोलने से ही मिलेगा-इसकी मिलन हो जाए, इससे पहचान हो जाए, यह तुम्हारे हाथ लग जाए-तब एक हरि-बोल उठता है। वह हरि-बोल असली भजन है।
यह जो तुम बैठकर राम-राम जपते रहते हो, इस भजन का कोई मूल्य नहीं है। तुम्हें न राम का पता... । तुम्हें अपना पता नहीं, राम का क्या खाक पता होगा! तुम्हें अभी काम का भी पता नहीं है; राम का तो क्या पता होगा! तुमने अभी बंधन भी नहीं पहचाने; मोक्ष को तो तुम कैसे पहचानोगे?
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