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एस धम्मो सनंतनो
___ तो मिथ्या-गुरु के प्रति तो तुम कभी भी अनुग्रह का भाव अनुभव नहीं कर सकते। अनुग्रह का भाव तो उसी के प्रति होता है, जिससे परम स्वतंत्रता मिले, बेशर्त स्वतंत्रता मिले।
धर्म सत्य है। 'और क्या जो मैं समझती हूं, वह सत्य है? आप स्पष्ट करें कि सत्य क्या है।'
जो तरु तू समझती है, वह सत्य नहीं है। लेकिन जो तेरे भीतर समझता है, वह सत्य है। जो तेरे भीतर जागकर देखता है, वह सत्य है। समझने वाला सत्य है; समझ का कोई बड़ा मूल्य नहीं है। समझ तो छोड़ देनी है। पहले नासमझ छोड़नी पड़ती है; फिर समझ छोड़नी पड़ती है। पहले संसार छोड़ना पड़ता है, फिर अध्यात्म छोड़ना पड़ता है। पहले गृहस्थी छोड़नी पड़ती है, फिर संन्यास छोड़ना पड़ता है। ___ आखिरी में वही बच जाता है, जो सबका समझने वाला है। निर्विचार जो साक्षी बच जाता है, उसी को धर्म कहो, उसी को परमात्मा कहो, मोक्ष कहो, निर्वाण कहो-जो प्रीतिकर लगे शब्द, वह दो। लेकिन वह तुम्हारा अंतर्तम स्वभाव है।
चौथा प्रश्नः
आप राजनीति के इतने विरोध में क्यों हैं?
गजनी ति के मैं विरोध में नहीं हैं। राजनीति तो लक्षण है। विरोध में हं हीनता
की ग्रंथि के; वह जो इंफीरियारिटी कांप्लेक्स है आदमी में, उसके। और राजनीति उसी रोग का लक्षण है।
जो व्यक्ति जितनी हीनता की ग्रंथि से पीड़ित होता है, उतने ही पद का आकांक्षी होता है। जो व्यक्ति जितनी हीनता की ग्रंथि से भरा होता है, उतना ही धन का आकांक्षी होता है। ___ समझना। हीनता की ग्रंथि का अर्थ होता है : भीतर तो तुम्हें लगता है—मैं कुछ भी नहीं हूं, ना-कुछ, दो कौड़ी का। मगर यह बात अखरती है। यह खटकती है—मैं और दो कौड़ी का! यह बात मानने का मन नहीं होता। दिखा दूंगा दुनिया को कि मैं भी कुछ हूं। हो जाऊंगा प्रधानमंत्री, कि राष्ट्रपति। कि कमा लूंगा दुनिया की संपत्ति
और दिखा दूंगा दुनिया को कि मैं कुछ हूं। ____ तुम्हारे भीतर जो तुम्हें लगता है : दो-कौड़ीपन, अर्थहीनता, रिक्तता, उसको भरने का उपाय है राजनीति। राजनीति यानी महत्वाकांक्षा; धन की हो कि पद की, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। और कभी-कभी त्याग की भी होती है। इससे भी कुछ फर्क नहीं पड़ता।
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